सुप्रीम कोर्ट ने यूपी के न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को दी वैधता, याचिका खारिज
नई दिल्ली | विधि संवाददाता
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को उत्तर प्रदेश के एक न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के खिलाफ दाखिल विशेष अनुमति याचिका (SLP) को खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा। न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने याचिकाकर्ता को कोई राहत देने से इनकार कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
विवादित अधिकारी को मार्च 2001 में मुंसीफ/सिविल जज (कनिष्ठ स्तर) के रूप में नियुक्त किया गया था। नवंबर 2021 में राज्य सरकार द्वारा उन्हें अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी गई। इस आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिसे 22 अप्रैल 2024 को खारिज कर दिया गया था।
हाईकोर्ट का निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि—
- न्यायिक अधिकारियों की सेवा समीक्षा के लिए एक स्क्रीनिंग कमेटी गठित की गई थी।
- समिति ने सेवा रिकॉर्ड का समग्र मूल्यांकन कर अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सिफारिश की।
- समिति की रिपोर्ट को फुल कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया, जिसने सिफारिश को स्वीकार कर लिया।
हाईकोर्ट ने यह भी रिकॉर्ड किया कि संबंधित अधिकारी फरवरी 2026 में सुपरएनुएशन की आयु प्राप्त करने वाले थे और उस समय वे SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम के विशेष न्यायाधीश के रूप में उत्तर प्रदेश की एक ट्रायल कोर्ट में कार्यरत थे।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया:
“मेरे मुवक्किल का रिकॉर्ड उत्कृष्ट रहा है। उन्हें प्रमोशन मिला है। वह ‘डेडवुड’ नहीं हैं।”
इस पर पीठ ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा:
“कृपया फुल कोर्ट की बुद्धिमत्ता पर कुछ भरोसा कीजिए।”
पीठ ने अंततः कहा:
“हम हाईकोर्ट के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते। विशेष अनुमति याचिका खारिज की जाती है।”
न्यायिक प्रशासन में ‘डेडवुड’ हटाने का प्रयास
इस निर्णय को न्यायिक प्रणाली में कार्यकुशलता और जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक स्पष्ट संकेत के रूप में देखा जा रहा है। यह दर्शाता है कि सेवा रिकॉर्ड के आधार पर मूल्यांकन कर न्यायपालिका के भीतर से अनुचित या अक्षम अधिकारियों को हटाने की प्रक्रिया को सर्वोच्च न्यायालय का भी समर्थन प्राप्त है।
निष्कर्षतः, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि जब फुल कोर्ट ने स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिश पर विचार कर निर्णय लिया है, तो उसमें हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं बनता। न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति अब अंतिम रूप से प्रभावी हो गई है।
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