आरोपमुक्त व्यक्ति को पुनः अभियुक्त बना देना: न्यायिक रूप से एक नई मिसाल – सुप्रीम कोर्ट

आरोपमुक्त व्यक्ति को पुनः अभियुक्त बना देना: न्यायिक रूप से एक नई मिसाल - सुप्रीम कोर्ट

यह टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण निर्णय “सुदर्शन सिंह वजीर बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली)” की समीक्षा करती है। इस मामले का केंद्रीय प्रश्न यह था कि क्या किसी अदालत द्वारा आपराधिक कार्यवाही में आरोपमुक्ति (डिस्चार्ज) के आदेश को निलंबित (स्टे) किया जा सकता है, और यदि हां, तो किन परिस्थितियों में? इस प्रकरण में, अपीलकर्ता श्री सुदर्शन सिंह वजीर को एक हत्या के मामले में आरोपमुक्त कर दिया गया था, लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनके आरोपमुक्ति आदेश पर रोक लगा दी थी। इस आदेश से असंतुष्ट होकर उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इस निर्णय ने उच्चतर न्यायालयों द्वारा पुनरीक्षण (रिवीजनल) क्षेत्राधिकार के तहत आरोपमुक्ति आदेशों में हस्तक्षेप करने और उन पर रोक लगाने के कानूनी मानकों को स्पष्ट किया है।

1. पक्षकारों का संक्षिप्त परिचय

इस मामले में अपीलकर्ता श्री सुदर्शन सिंह वजीर को भारतीय दंड संहिता (IPC) और शस्त्र अधिनियम के तहत विभिन्न अपराधों के लिए आरोपी बनाया गया था। दूसरी ओर, उत्तरदायी पक्षकार (प्रतिवादी) राज्य (एनसीटी दिल्ली) था, जिसने आरोपमुक्ति के आदेश को चुनौती देते हुए पुनरीक्षण याचिका दायर की थी।


2. निर्णय का सारांश

सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आरोपमुक्ति आदेश पर रोक लगाना एक अत्यंत गंभीर कदम है, क्योंकि यह सीधे तौर पर आरोपमुक्त व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। जब किसी व्यक्ति को आरोपमुक्त किया जाता है, तो वह कानूनी दृष्टि से अब “अभियुक्त” (accused) नहीं रहता। यदि इस आरोपमुक्ति आदेश पर रोक लगा दी जाती है, तो उसका परिणाम यह होता है कि संबंधित व्यक्ति दोबारा अभियोजन (trial) प्रक्रिया में लौट आता है।

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मुख्य निष्कर्ष:

  • आरोपमुक्त व्यक्ति को पुनः अभियुक्त बना देना न्यायिक रूप से अनुचित है, विशेष रूप से तब जब उसे सुने बिना यह रोक लगाई गई हो।
  • न्यायिक पुनरीक्षण (Revisional Jurisdiction) के तहत उच्च न्यायालय की शक्तियां सीमित होती हैं, और किसी भी आरोपमुक्ति आदेश में हस्तक्षेप करना केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि अपीलकर्ता धारा 390 सीआरपीसी (CrPC) के तहत आवश्यक जमानत बांड प्रस्तुत करे।

3. निर्णय का विधिक विश्लेषण

क. उद्धृत पूर्व निर्णय (Precedents Cited):

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कई पूर्व निर्णयों का संदर्भ दिया, जिनमें प्रमुख थे:

  1. उत्तर प्रदेश राज्य बनाम पूसू एवं अन्य (1976) 3 SCC 1
    • इस निर्णय में कहा गया था कि जब किसी व्यक्ति की अपील के तहत पुनः दोषसिद्धि या अभियोजन की संभावना हो, तो उसकी कानूनी स्थिति फिर से “अभियुक्त” के रूप में बहाल हो जाती है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह सिद्धांत आरोपमुक्ति (discharge) के मामलों में भी लागू किया जा सकता है।
  2. अमीन खान बनाम राजस्थान राज्य (2009) 3 SCC 776 एवं महाराष्ट्र राज्य बनाम महेश करिमन तिरकी (2022) 10 SCC 207
    • इन मामलों में यह स्पष्ट किया गया कि न्यायिक पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय को आरोपमुक्ति आदेशों को पलटने की शक्ति होती है, लेकिन यह शक्ति केवल विशेष परिस्थितियों में ही इस्तेमाल की जानी चाहिए।
  3. परविंदर सिंह खुराना बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2024 SCC OnLine SC 1765; 2024 INSC 54)
    • यह निर्णय जमानत आदेशों (bail orders) पर अंतरिम रोक (stay) लगाने के संबंध में था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले का उपयोग करते हुए तर्क दिया कि अगर किसी व्यक्ति को जमानत पर रोक लगाने के लिए “दुर्लभ और असाधारण परिस्थितियाँ” चाहिए, तो आरोपमुक्ति के आदेश को रोकने के लिए और भी अधिक सख्त मानक अपनाने चाहिए।
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ख. विधिक तर्क (Legal Reasoning):

सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार तथा फौजदारी प्रक्रिया संहिता (CrPC) की विभिन्न धाराओं की व्याख्या करते हुए यह निष्कर्ष दिया कि:

  • “उच्चतम मानक” (Higher Pedestal) सिद्धांत:
    • जब किसी व्यक्ति को आरोपमुक्त कर दिया जाता है, तो वह एक तरह से न केवल निर्दोष माना जाता है, बल्कि उस पर आगे मुकदमा चलाने का कोई आधार भी नहीं रह जाता।
    • इसलिए, उसकी स्वतंत्रता एक जमानतशुदा अभियुक्त से भी अधिक मजबूत स्थिति में होती है।
  • “एकतरफा आदेशों (Ex-parte Orders) की निषेधता”
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बिना सुनवाई के, एकतरफा तरीके से आरोपमुक्ति आदेश पर रोक नहीं लगाई जा सकती।
    • केवल असाधारण परिस्थितियों में ही ऐसी रोक उचित हो सकती है।
  • धारा 390 सीआरपीसी का उपयोग (Use of Section 390 CrPC)
    • इस धारा के तहत, किसी व्यक्ति को केवल उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए बुलाया जा सकता है, न कि उसे तत्काल हिरासत में लेने के लिए।
    • इसलिए, पुनरीक्षण याचिका के लंबित रहने के दौरान बिना किसी विशेष कारण के गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए।

4. भविष्य में इस निर्णय का प्रभाव (Impact on Future Cases)

इस निर्णय से निम्नलिखित प्रभाव पड़ने की संभावना है:

  1. आरोपमुक्ति आदेशों को रोकने के लिए उच्च न्यायालयों को अधिक सख्त मानकों का पालन करना होगा।
  2. भविष्य में अभियुक्तों को यह आश्वासन मिलेगा कि एक बार आरोपमुक्त होने के बाद, उन्हें फिर से कानूनी प्रक्रिया में खींचने के लिए मजबूत आधार प्रस्तुत करना होगा।
  3. न्यायिक पुनरीक्षण की सीमाओं को लेकर अधिक स्पष्टता आएगी, जिससे अभियोजन पक्ष भी मनमाने ढंग से आरोपमुक्ति आदेशों को चुनौती नहीं दे पाएगा।
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5. जटिल कानूनी अवधारणाओं की सरल व्याख्या

  • आरोपमुक्ति (Discharge) बनाम दोषमुक्ति (Acquittal):
    • आरोपमुक्ति तब होती है जब मुकदमे की शुरुआत से पहले ही न्यायालय यह पाता है कि अभियोजन के पास पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं।
    • दोषमुक्ति (Acquittal) मुकदमे के बाद दी जाती है, जब आरोपी को “निर्दोष” घोषित किया जाता है।
  • न्यायिक पुनरीक्षण (Revisional Jurisdiction) – धारा 397 और 401 CrPC:
    • यह उच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि नीचली अदालतों के आदेशों की समीक्षा कर सके और आवश्यकतानुसार उनमें संशोधन कर सके।
  • धारा 390 CrPC:
    • यह धारा अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जमानत बांड (bail bond) प्रस्तुत करने की प्रक्रिया निर्धारित करती है।

6. निष्कर्ष

इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक पुनरीक्षण के सीमित दायरे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की प्राथमिकता को पुनः स्थापित किया है। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि आरोपमुक्त व्यक्ति को दोबारा अभियोजन प्रक्रिया में खींचना दुर्लभ और असाधारण परिस्थितियों में ही संभव होगा। यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली में व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा को और मजबूत करता है तथा न्यायालयों को मनमाने ढंग से आरोपमुक्ति आदेशों पर रोक लगाने से रोकता है।

वाद शीर्षक – सुदर्शन सिंह वजीर बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली)
वाद संख्या – 2025 INSC 281

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