झारखंड हाई कोर्ट में निर्णय में देरी पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्त टिप्पणी: “न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान, और न्याय न मिलना उससे भी बदतर”

झारखंड हाई कोर्ट में निर्णय में देरी पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्त टिप्पणी: "न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान, और न्याय न मिलना उससे भी बदतर"

झारखंड हाई कोर्ट में निर्णय में देरी पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्त टिप्पणी: “न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान, और न्याय न मिलना उससे भी बदतर”

सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाई कोर्ट में तीन वर्ष से अधिक समय से सुरक्षित रखे गए निर्णयों पर सख़्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि “न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान है, जबकि न्याय न मिलना उससे भी अधिक क्रूर है।” अदालत ने इस संबंध में झारखंड हाई कोर्ट से दो महीने से अधिक समय से सुरक्षित रखे गए सभी निर्णयों की रिपोर्ट एक सीलबंद लिफाफे में मांगी है।

यह निर्देश उन चार दोषियों की याचिका पर आया है, जिन्होंने आजीवन कारावास की सजा के खिलाफ अपनी अपीलों पर निर्णय में अत्यधिक विलंब को चुनौती देते हुए अपने जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।


मामले की पृष्ठभूमि:

बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार, रांची में बंद पिला पाहन, सोमा बदंग, सत्यनार और धर्मेश उरांव नामक चार दोषियों ने बताया कि झारखंड हाई कोर्ट ने वर्ष 2022 से उनकी अपीलों पर निर्णय सुरक्षित रखा है, लेकिन अभी तक कोई आदेश पारित नहीं किया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अपनी सजा के 11 से 16 वर्ष तक की अवधि पहले ही भुगत ली है।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए झारखंड हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया कि वे सभी ऐसे मामलों की विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करें, जिनमें निर्णय दो महीने से अधिक समय से सुरक्षित रखा गया है।

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याचिका की प्रमुख बातें:

  • याचिका में कहा गया कि दोषी अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय से आते हैं और निर्णय के बिना उन्हें छूट या पैरोल के लिए आवेदन करने तक का अवसर नहीं मिल रहा।
  • केवल ये चार कैदी नहीं, बल्कि याचिका के साथ 10 अन्य आजीवन कारावास भुगत रहे कैदियों की सूची भी संलग्न की गई है, जिनकी अपीलें वर्षों से लंबित हैं।
  • कैदियों ने राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, और जेल निरीक्षणों के दौरान अधिकारियों को भी अवगत कराया, लेकिन कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

सुप्रीम कोर्ट की कानूनी दृष्टिकोण से टिप्पणी:

  • पीठ ने कहा कि अगर कोई निर्णय सुरक्षित रखा जाता है, तो उसे तीन महीने के भीतर सुनाया जाना चाहिए और किसी भी स्थिति में छह महीने से अधिक समय तक लंबित नहीं रखा जा सकता।
  • “अनी राय बनाम बिहार राज्य (2001)” मामले का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि “न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि ऐसा होता हुआ दिखना भी चाहिए।”
  • साथ ही, निर्णय में वह तिथि भी उल्लेखित होनी चाहिए, जब फैसला सुरक्षित रखा गया और जब उसे सुनाया गया।

जमानत याचिका पर भी नोटिस:

सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों द्वारा जमानत की मांग पर भी झारखंड सरकार को नोटिस जारी किया है। यह मुद्दा उस समय विशेष महत्व रखता है, जब सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि ऐसे कैदी, जिन्होंने आजीवन कारावास के तहत कम से कम 8 वर्ष की वास्तविक सजा काट ली हो, वे जमानत के पात्र हो सकते हैं।


यह मामला न केवल झारखंड हाई कोर्ट की कार्यप्रणाली पर न्यायिक जवाबदेही का प्रश्न उठाता है, बल्कि देश भर में निर्णयों में देरी से जुड़े सिस्टमेटिक न्यायिक विलंब की गंभीरता को भी रेखांकित करता है।

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