धारा 498ए आईपीसी के तहत अपराध का आरोप लगाते हुए दायर किए गए बड़ी संख्या में मामलों में अतिशयोक्ति की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है और न्यायालयों से इस बारे में सतर्क रहना चाहिए – सुप्रीम कोर्ट

धारा 498ए आईपीसी के तहत अपराध का आरोप लगाते हुए दायर किए गए बड़ी संख्या में मामलों में अतिशयोक्ति की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है और न्यायालयों से इस बारे में सतर्क रहना चाहिए – सुप्रीम कोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 498ए आईपीसी के तहत अपराध का आरोप लगाते हुए दायर किए गए बड़ी संख्या में मामलों में अतिशयोक्ति की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है और न्यायालयों से इस बारे में सतर्क रहने को कहा।

विशेष अनुमति द्वारा यह अपील बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा 2014 की आपराधिक अपील संख्या 1014 में पारित दिनांक 15.12.2020 के निर्णय और आदेश के विरुद्ध निर्देशित है, जिसे आपराधिक अपील संख्या 14/2015 के साथ सुना गया था, दोनों ही एक ही प्रथम सूचना रिपोर्ट से उभरे दो सत्र मामलों में एक सामान्य निर्णय से उत्पन्न हुए थे। अपीलकर्ता आपराधिक अपील संख्या 1014/2014 में दूसरा अपीलकर्ता था, जिसे आक्षेपित निर्णय के तहत आंशिक रूप से अनुमति दी गई थी, जिसके तहत भारतीय दंड संहिता, 1860 ‘आईपीसी’ की धारा 498-ए के तहत उसकी दोषसिद्धि की पुष्टि की गई थी और उसके लिए लगाई गई सजा को पहले से काटे गए कारावास की अवधि में बदल दिया गया था।

न्यायालय ने धारा 498ए आईपीसी के तहत आरोपी एक व्यक्ति को बरी कर दिया, जबकि यह भी कहा कि केवल इसलिए कि वह दोषी भाभी का पति है, किसी विशिष्ट सामग्री के अभाव में उसे उक्त अपराध के तहत दोषी ठहराने का आधार नहीं हो सकता।

न्यायालय उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध एक आपराधिक अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसने अपीलकर्ता की अपील को आंशिक रूप से अनुमति दी थी, जिसके तहत भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-ए के तहत उसकी दोषसिद्धि की पुष्टि की गई थी।

न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा, “दूसरे आरोपी सविता का पति होना, जिसे निचली अदालतों ने उपरोक्त अपराध के लिए दोषी पाया था, अपीलकर्ता को रिकॉर्ड पर किसी विशिष्ट सामग्री के अभाव में उक्त अपराध के तहत दोषी ठहराने का आधार नहीं हो सकता… धारा 498-ए, आईपीसी के तहत अपराध के लिए निचली अदालतों द्वारा अपीलकर्ता के खिलाफ धारा 34, आईपीसी की सहायता से दोषी पाया जाना, किसी भी तरह से उक्त अपराध से उसे जोड़ने के लिए उसके खिलाफ किसी भी सबूत के अभाव के मद्देनजर पूरी तरह से गलत है।” संक्षिप्त तथ्य-

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वर्तमान मामले में, दूसरे प्रतिवादी की बेटी की शादी आरोपी नंबर 1 से हुई थी। आरोपी नंबर 1 और उसके रिश्तेदारों ने कथित तौर पर दहेज की मांग की और उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया। एक दिन मृतक के पिता को वर्तमान अपीलकर्ता, जो मृतक की भाभी का पति है, ने सूचित किया कि उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है; हालाँकि, जब तक उसका परिवार अस्पताल पहुँचा, तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी। उसके पिता ने उसके माथे पर खरोंच और गर्दन पर लिगचर के निशान देखे, जिससे उन्हें संदेह हुआ कि कुछ गड़बड़ है। उन्होंने शिकायत दर्ज कराई, जिसके परिणामस्वरूप एक एफआईआर और मुकदमा चला, जिसके दौरान अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 498-ए के तहत दोषी भी ठहराया गया।

न्यायालय ने प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य के निर्णय का उल्लेख किया, जहां न्यायालय के अनुसार यह देखा गया था, “यह सर्वविदित है कि घटना के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाना बड़ी संख्या में शिकायतों में पाया जाता है और बड़ी संख्या में मामलों में अतिशयोक्ति की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है।”

न्यायलय ने कहा की धारा 498-ए का मात्र अवलोकन करने से पता चलता है कि उक्त अपराध के लिए निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-
(क) पीड़िता विवाहित महिला थी (विधवा भी हो सकती है);
(ख) उसके पति या उसके पति के रिश्तेदारों द्वारा उसके साथ क्रूरता की गई है;
(ग) ऐसी क्रूरता में या तो (i) दहेज की मांग को पूरा करने के लिए उत्पीड़न, या (ii) पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा जानबूझकर ऐसा संपर्क शामिल है जिससे महिला आत्महत्या कर सकती है या उसके जीवन, अंग या स्वास्थ्य को गंभीर चोट लग सकती है;
(घ) उपरोक्त चोट शारीरिक या मानसिक हो सकती है।

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न्यायालय ने आगे कहा, “अदालतों को अतिशयोक्ति के उदाहरणों की पहचान करने और ऐसे व्यक्तियों द्वारा अपमान और अक्षम्य परिणामों की पीड़ा को रोकने के लिए सावधान रहना चाहिए।”

तदनुसार, न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया।

वाद शीर्षक – यशोदीप बिसनराव वडोडे बनाम महाराष्ट्र राज्य

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