शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर सजा कम करके अनुचित सहानुभूति दिखाई जाती है तो इससे कानून की प्रभावशीलता में लोगों की आस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
सर्वोच्च अदालत ने मंगलवार को कहा कि उचित सजा का फैसला करने में अपराध की गंभीरता पर ही मुख्य रूप से विचार करना चाहिए और अगर सजा कम करके अनुचित सहानुभूति दिखाई जाती है तो इससे कानून की प्रभावशीलता में लोगों की आस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एएस ओका की पीठ बांबे हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी। 1992 के एक मामले में तीन दोषियों को दी गई एक साल की साधारण कारावास की सजा को शीर्ष अदालत ने छह महीने और बढ़ा दिया।
दरअसल, 1992 में हाईकोर्ट ने चार अभियुक्तों की सजा को तीन साल से घटाकर एक साल कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अभियुक्तों में से एक की मृत्यु हो गई थी और शिकायतकर्ता द्वारा दायर अपील उसके खिलाफ समाप्त हो जाती है। जहां तक सजा का संबंध है, न्यायिक विवेक हमेशा विभिन्न विचारों द्वारा निर्देशित होता है जैसे कि अपराध की गंभीरता, परिस्थितियां जिनमें अपराध किया गया था, और अभियुक्त की पृष्ठभूमि।
सजा कम करने पर पड़ता है प्रतिकूल असर-
अपने दिसंबर, 2016 के फैसले में हाई कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा चार व्यक्तियों को दी गई तीन साल की सजा को घटाकर एक वर्ष कर दिया था। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि एक आरोपित की मौत हो गई है और शिकायतकर्ता द्वारा उसके विरुद्ध दायर अपील खारिज हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट के फैसले के अवलोकन से पता चलता है कि आरोपित के पक्ष में गंभीरता को कम करने वाली किसी भी प्रासंगिक परिस्थिति के अस्तित्व के संबंध में कोई निष्कर्ष दर्ज नहीं किया गया।
शीर्ष अदालत ने तीनों आरोपितों को अपीलकर्ता और घायल गवाह को 40,000 रुपये की अतिरिक्त राशि का भुगतान करने और छह महीने का साधारण कारावास भुगतने के लिए छह हफ्ते में आत्मसमर्पण करने का निर्देश भी दिया। अभियोजन पक्ष के अनुसार मार्च, 1992 में चार लोगों ने अपीलकर्ता और गवाह से मारपीट की थी।