न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के रवैये पर खेद जताते हुए कहा कि, वकील की गलती के कारण जमानत न देना ‘न्याय का मजाक’-

  • Supreme Court शीर्ष अदालत ने पहले इन जमानत मामलों को हाईकोर्ट के समक्ष रखने का निर्देश दिया था।
  • High Court हाईकोर्ट की रजिस्ट्री को ऐसे मामलों को स्वत: संज्ञान मामले के तौर पर पंजीकृत करना चाहिए। 

उच्चतम न्यायलय ने वकीलों की गलती के कारण लंबे समय से जेल में बंद लोगों को जमानत नहीं देने को कहा की ये न्याय का मजाक है। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायलय के वकीलों की तैयारी न होने के कारण जमानत देने से इनकार करने पर खेद जताया है।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा, यह स्पष्ट तौर पर गलत धारणा है कि परिस्थितियों के आधार पर जमानत याचिका पर विचार नहीं हो सकता। अधिवक्ता अक्सर यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि वह दलीलों के साथ तैयार नहीं हैं। जब दोषी 14 साल से अधिक समय जेल में बिता चुका है तो अन्य शर्तों को देखा जाना चाहिए।

पीठ ने कहा कि वकील की गलती के लिए किसी व्यक्ति को जमानत देने से इनकार वास्तव में “न्याय का मजाक” होगा-

शीर्ष अदालत काफी समय से हिरासत में और अपील हाईकोर्ट में लंबित होने के मामले पर सुनवाई कर रही थी। मौजूदा मामला विशेष रूप से इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष लंबित आपराधिक अपील से संबंधित है। शीर्ष अदालत ने पहले इन जमानत मामलों को हाईकोर्ट के समक्ष रखने का निर्देश दिया था। हाईकोर्ट की रजिस्ट्री को ऐसे मामलों को स्वत: संज्ञान मामले के तौर पर पंजीकृत करना चाहिए। शुक्रवार को पीठ ने पाया कि हालांकि मामले स्वत: संज्ञान के तौर पर दर्ज तो किए गए, लेकिन उन्हें सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं किया गया था। पीठ ने कहा कि हमारे पास हाईकोर्ट की एक रिपोर्ट है, जो बताती है कि जमानत के लिए हाईकोर्ट भेजे गए 18 मामलों को 16 और 18 नवंबर को सूचीबद्ध किया गया था। अपीलकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता पेश नहीं हुए।

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उच्च न्यायलय की तरफ से पेश वकील निखिल गोयल ने कहा कि कुछ मामलों का निपटारा कर दिया गया है और अन्य में दोषियों के लिए वकील तैयार नहीं थे।

अधिवक्ता द्वारा ऐसी प्रणाली विकसित की-

न्यायमूर्ति कौल ने कहा, लगता है कि लोग हाईकोर्ट के समक्ष पेश नहीं होना चाहते। वे सर्वोच्च न्यायालय को पहली अदालत के रूप में देखते हैं। उन्होंने ऐसी प्रणाली विकसित करने का आह्वान किया, जिसमें ऐसे मामले आसानी से निपटाए जा सकें। उन्होंने राज्य सरकार और हाईकोर्ट से इसे लागू करने के लिए समन्वय का आग्रह किया। मामले की अगली सुनवाई 31 मार्च को होगी।

जेल में गंवाए साल कौन लौटाएगा-

न्यायमूर्ति कौल ने कहा, हमारे पास हाईकोर्ट के ऐसे आदेश आते हैं, जहां जमानत याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी जाती है कि अपराध जघन्य है। क्या सुधार संभव नहीं है? हमें देखना होगा कि वह समाज में कैसा व्यवहार करता है? न्यायमूर्ति सुंदरेश ने कहा, अपील सफल हुई तो उन्होंने जो साल जेल में गंवाए, उन्हें कौन लौटाएगा? हम इसे केवल दंडात्मक नजरिए से देखते हैं। यही समस्या है।

राज्य और हाईकोर्ट अपना सकते हैं उपयुक्त रुख-

शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी दोषी ने जेल में 14 साल पूरे कर लिए हैं तो राज्य खुद एक उपयुक्त रुख अपना सकता है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश रिहाई के लिए मामले की जांच करने के आदेश पारित कर सकते हैं। वकील की अनुपस्थिति इसके आड़े नहीं आ सकती। शीर्ष अदालत ने सुझाव दिया कि 10-14 और 10 साल तक की हिरासत में रहने वालों की अलग सूची तैयार की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति कौल ने कहा, कैदी 14 या 17 वर्षों से जेल में हों और वकील बहस करने के लिए तैयार नहीं हों तो क्या उन्हें अधिवक्ता की तैयारी न होने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

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17 साल जेल में काटने वाले को दी जमानत-

पीठ के समक्ष ऐसा भी उदाहरण था, जिसमें दोषी 17 साल से जेल में था और हाईकोर्ट ने उसकी जमानत याचिका इसलिए खारिज कर दी, क्योंकि वकील दलीलों के साथ तैयार नहीं था। उसके बाद, वकील के तैयार होने पर भी चार बार याचिका पर सुनवाई नहीं हुई। शीर्ष अदालत ने उस दोषी को जमानत दे दे।

नाराज न्यायमूर्ति कौल ने कहा, हमें जमानत देने में कितना समय लगा? 15 मिनट। हम चाहते थे कि हाईकोर्ट एक खाका ढूंढे, लेकिन आज हम बहुत परेशान हैं। उन्होंने राज्य सरकार और हाईकोर्ट से इसे लागू करने के लिए समन्वय का आग्रह किया। मामले की अगली सुनवाई 31 मार्च को होगी।

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