आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (Economic Weaker Section) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण जारी रहेगा. सर्वोच्च न्यायलय की संवैधानिक पीठ इस मामले पर अपना फैसला सुप्रीम फैसला सुनाया. पांच जजों की बेंच में से अब तक चार जजों ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण EWS Reservation के पक्ष में फैसला सुनाया है.
इन जजों का कहना है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण संविधान का उल्लंघन नहीं करता है.
ज्ञात हो की ईडब्ल्यूएस कोटे EWS की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. इस मामले में कई याचिकाओं पर लंबी सुनवाई के बाद शीर्ष अदालत ने 27 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.
शिक्षाविद मोहन गोपाल ने इस मामले में 13 सितंबर को पीठ के समक्ष दलीलें रखी थीं और ईडब्ल्यूएस कोटा संशोधन का विरोध करते हुए इसे ‘‘पिछले दरवाजे से’’ आरक्षण की अवधारणा को नष्ट करने का प्रयास बताया था.
सर्वोच्च अदालत में दाखिले और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आज अपना फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 10 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखा है.
Economic Weaker Section कोटा पर Supreme Court के 5 जजों में से दो ने आरक्षण को संवैधानिक ठहराया. आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को दस फीसदी आरक्षण बना रहेगा, संविधान पीठ ने 2019 का संविधान में 103 वां संशोधन संवैधानिक और वैध करार .
सुप्रीम कोर्ट ने EWS पर कहा –
EWS कोटे से संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं हुआ. हालांकि न्यायमूर्ति भट ने आरक्षण को असंवैधानिक माना. उन्होंने बाकी जजों से असहमति जताई. संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से संवैधानिक और वैध करार दिया. CJI यू यू ललित, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने दिया बहुमत का फैसला. जबकि न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने असहमति जताते हुए इसे अंसवैधानिक करार दिया.
न्यायमूर्ति माहेश्वरी ने कहा कि ये आरक्षण संविधान को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, ये समानता संहिता का उल्लंघन नहीं. साथ ही आरक्षण के खिलाफ याचिकाएं खारिज कर दी गई. न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने भी आरक्षण को सही करार दिया. न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा कि अगर राज्य इसे सही ठहरा सकता है तो उसे भेदभावपूर्ण नहीं माना जा सकता, ईडब्ल्यूएस नागरिकों की उन्नति के लिए सकारात्मक कार्रवाई के रूप में संशोधन की आवश्यकता है. असमानों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता. SEBC अलग श्रेणियां बनाता है. अनारक्षित श्रेणी के बराबर नहीं माना जा सकता . Economic Weaker Section के तहत लाभ को भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता.
इसने सभी केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों को 25% सीटें बढ़ाने के लिए निर्देश दिया है. 4,315.15 करोड़ स्वीकृत रुपये की लागत से कुल 2.14 लाख अतिरिक्त सीटें तैयार किए गए हैं. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रस्तुत किया कि इस संबंध में की गई गणना के अनुसार, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण प्रदान करने के लिए, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आनुपातिक आरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना सामान्य के लिए सीट की उपलब्धता को कम नहीं किया गया है.
यह प्रस्तुत किया गया है कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में कुल 2,14,766 अतिरिक्त सीटें सृजित करने की मंज़ूरी दी गई थी; और उच्च शिक्षण संस्थानों में बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए 4,315.15 करोड़ रुपये खर्च करने की मंज़ूरी दी गई है.शीर्ष अदालत ने सुनवाई में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सहित वरिष्ठ वकीलों की दलीलें सुनने के बाद इस कानूनी सवाल पर 27 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था कि क्या ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किया है. शिक्षाविद मोहन गोपाल ने इस मामले में 13 सितंबर को पीठ के समक्ष दलीलें रखी थीं और ईडब्ल्यूएस कोटा संशोधन का विरोध करते हुए इसे ‘‘पिछले दरवाजे से” आरक्षण की अवधारणा को नष्ट करने का प्रयास बताया था.
पीठ में न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी, और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला भी शामिल थे. तमिलनाडु की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफाड़े ने ईडब्ल्यूएस कोटा का विरोध करते हुए कहा था कि आर्थिक मानदंड वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकता है और शीर्ष अदालत को इंदिरा साहनी (मंडल) फैसले पर फिर से विचार करना होगा यदि वह इस आरक्षण को बनाए रखने का फैसला करता है.
दूसरी ओर, तत्कालीन अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल ने संशोधन का पुरजोर बचाव करते हुए कहा था कि इसके तहत प्रदान किया गया आरक्षण अलग है तथा सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए 50 प्रतिशत कोटा से छेड़छाड़ किए बिना दिया गया. उन्होंने कहा था कि इसलिए, संशोधित प्रावधान संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है.