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Protest Petition (नाराज़ी याचिका) प्रस्तुत होने पर मजिस्ट्रेट को क्या कार्यवाही करना चाहिए – शीर्ष अदालत

“मजिस्ट्रेट को नाराज़ी याचिका (protest petition) को ‘परिवाद’ (complaint) मानते हुए संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
” माननीय शीर्ष अदालत ने विष्णु कुमार तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में नाराज़ी याचिका दायर होने पर मजिस्ट्रेट को क्या प्रक्रिया अपनानी चाहिए, यह समझाया है।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के. एम. जोसफ ने यह कहा कि यदि नाराज़ी याचिका ‘परिवाद’ की शर्तों को पूर्ण करती है तो उसे परिवाद की तरह मानकर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और 202 के तहत मजिस्ट्रेट एक्शन ले सकता है।

पीठ ने कहा कि यदि मजिस्ट्रेट नाराज़ी याचिका को ‘परिवाद’ के रूप में नहीं स्वीकारता है तो शिकायतकर्ता/ परिवादी के पास यह समाधान है कि वह नया परिवाद दायर करें और मजिस्ट्रेट को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और 202 के तहत प्रक्रिया का अनुसरण करने हेतु प्रेरित करें।

मा. उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे पर कई केस लॉ उल्लेखित किये. उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत जा रहे है ताकि आप मुद्दे को बेहतर समझ सके-

“संहिता में FIR दर्ज़ करवाने वाले व्यक्ति (informant) द्वारा नाराज़ी याचिका दायर करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है पर यह प्रैक्टिस रहीं है.” नाराज़ी याचिका कौन दायर कर सकता है?

जैसा कि भगवंत सिंह केस [(1985) 2 SCC 537 : 1985 SCC (Cri) 267 : AIR 1985 SC 1285] में बताया गया है- नाराज़ी याचिका दायर करने का अधिकार सिर्फ सूचना देने वाले व्यक्ति के पास है और किसी के पास नहीं है.

फाइनल रिपोर्ट मिलने पर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपलब्ध विकल्प जब धारा 173(2)(I) के तहत पुलिस द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष रिपोर्ट पेश की जाती है कई तरह की स्थितियाँ प्रस्तुत हो जाती है.

रिपोर्ट यह निष्कर्ष प्रस्तुत कर सकती है कि व्यक्ति विशेष ने अपराध किया है और इस स्थिति में मजिस्ट्रेट या तो
(1) रिपोर्ट स्वीकार करेगा और अपराध का संज्ञान लेते हुए आदेशिका जारी करेगा. या
(2) वह रिपोर्ट से असहमति जाहिर करेगा और कार्यवाही वही रोक देगा. या (3) वह धारा 156 (3) के तहत और आगे जाँच करने का निर्देश देगा और पुलिस को आगे रिपोर्ट पेश करने का आदेश देगा. या फिर दूसरी तरफ, पुलिस रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर पहुँच सकती है कि कोई अपराध नहीं घटित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है.

जब मजिस्ट्रेट के समक्ष ऐसी रिपोर्ट पेश की जाती है तो उसके पास निम्न तीनों में से एक विकल्प चुनने का मौका होता है –

(a) वह रिपोर्ट से सहमति जाहिर करेगा और कार्यवाही वही रोक देगा.
या
(b) वह रिपोर्ट से असहमति जाहिर करेगा और अपराध का संज्ञान लेते हुए आदेशिका जारी करेगा. या (3) वह धारा 156 (c) के तहत और आगे जाँच करने का निर्देश देगा और पुलिस को आगे रिपोर्ट पेश करने का आदेश देगा. अत: यह स्थिति मान्य है कि धारा 173(2) के तहत पुलिस रिपोर्ट पेश किये जाने पर मजिस्ट्रेट धारा 190 (1)(ख) के तहत अपराध का संज्ञान ले सकता है हालाँकि पुलिस रिपोर्ट यह कहती है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई मामला नहीं बनता है।

मजिस्ट्रेट तफ्तीश के दौरान पुलिस द्वारा गवाहों के रिकॉर्ड किये गए बयानों पर विचार कर सकता है और अपराध का संज्ञान लेते हुए अभियुक्त को आदेशिका जारी कर सकता है.

धारा 190 (1)(ख) यह नहीं कहती है कि मजिस्ट्रेट तब ही संज्ञान ले सकता है जब अन्वेषण अधिकारी यह राय पेश करें कि जाँच में अभियुक्त के खिलाफ मामला बनता है।

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मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा पेश किये गए निष्कर्ष को नज़रअंदाज़ कर सकता है और जाँच से पेश हो रहे तथ्यों के आधार पर स्वतंत्र रूप से विचार करते हुए, अगर उचित लगे, तो अपराध का संज्ञान ले सकता है. और धारा 190 (1)(ख) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए आदेशिका जारी कर सकता है.

ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट धारा 190 (1) के तहत मामले का संज्ञान लेने के लिए धारा 200 और 202 में लिखित प्रक्रिया का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है हालाँकि उसके पास धारा 200 और 2002 के तहत एक्शन लेने का विकल्प है.

  • इंडिया कैरट बनाम कर्नाटक राज्य [(1989) 2 SCC 132 : 1989 SCC (Cri) 306 : AIR 1989 SC 885]). सूचना देने वाले व्यक्ति के अधिकारों पर कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ता है यदि मजिस्ट्रेट संज्ञान लेते हुए आदेशिका जारी करता है.
    ” जहाँ मजिस्ट्रेट यह निर्णय लेता है कि आगे एक्शन लेने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है और वह आगे की कार्यवाही रोक देता है या फिर वह यह निष्कर्ष पर आता है कि कुछ के विरुद्ध आगे कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त सामग्री है और कुछ के विरुद्ध नहीं, तो सूचना देने वाले के अधिकार बिल्कुल प्रभावित होते है क्योंकि FIR पूर्ण रूप से या या आंशिक तौर पर प्रभावहीन हो जाती है. इसीलिए

भगवंत सिंह केस [(1985) 2 SCC 537 : 1985 SCC (Cri) 267 : AIR 1985 SC 1285] में बताया गया है- जहाँ मजिस्ट्रेट संज्ञान नहीं लेने का निर्णय लेता है और कार्यवाही रोक देता है या फिर वह यह मत लेता है कि FIR में दर्ज़ कुछ व्यक्तियों के विरुद्ध आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं है तो, सूचना देने वाले को नोटिस दिया जाना चाहिए और अनिवार्यत: उसे अपना पक्ष प्रस्तुत करने का मौका दिया जाना चाहिए.” “इस बात पर किसी तरह का शक या शुबहा नहीं हो सकता कि मात्र इसलिए कि मजिस्ट्रेट ने फाइनल रिपोर्ट स्वीकार कर ली है, वह नाराज़ी याचिका या परिवाद के आधार पर अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता है.

” इस मामले में (विष्णु कुमार तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य), मृत महिला के पिता के परिवाद के आधार पर, महिला के पति और ससुराल वालों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 201, 304 -बी, 498-A के तहत अपराधों का आरोप लगाते हुए एक FIR दायर की गयी थी. तफ्तीश के बाद अन्वेषण अधिकारी ने धारा 178 के तहत फाइनल रिपोर्ट दायर की. तथ्यत: (De facto) परिवादी ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष नाराज़ी याचिका दायर की जिसने इस निष्कर्ष के साथ आर्डर पास किया था कि परिवादी की पुत्री की बीमारी की वजह से मृत्यु हुई थी।

इलाहबाद उच्च न्यायालय में इस निर्णय के विरुद्ध दायर याचिका में, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के आर्डर को अमान्य घोषित कर दिया गया.

मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को यह भी निर्देश दिए गए कि वह अभियुक्तों के विरुद्ध संज्ञान लेने के सम्बन्ध में मामले को पुन: नए सिरे से देखे-

” अपील सुनते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर मजिस्ट्रेट को, फाइनल रिपोर्ट और धारा 160 के तहत बयानों के आधार पर यह भरोसा हो जाता है कि प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, तो नि: संदेह, मजिस्ट्रेट को नाराज़ी याचिका (protest petition) को ‘परिवाद’ (complaint) मानते हुए संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है. “यह तथ्य कि किसी मामले में उसके पास नाराज़ी याचिका को परिवाद के तौर पर देखने का अधिकार क्षेत्र हो सकता है, वह एक अलग मुद्दा है।

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नि: संदेह, अगर वह नाराज़ी याचिका को परिवाद के रूप में देखता है तो उसे धारा 200 और 202 में लिखित प्रक्रिया का अनुसरण करना होगा।

दूसरे शब्दों में परिवादी और गवाहों को परीक्षण (examine) करना होगा. नि: संदेह, परिवादी द्वारा नाराज़ी याचिका में मजिस्ट्रेट को उपलब्ध करवाए गए कागजातों/सामग्री के आधार पर, मामले विशेष में, सामग्री की मूलभूत प्रकृति को और उसके फाइनल रिपोर्ट पर प्रभाव को देखते हुए इस पर भरोसा किया जा सकता है, अर्थात प्रस्तुत की गयी सामग्री इस प्रभाव की है कि वह कोर्ट को अन्वेषण अधिकारी के निष्कर्षों के इतर जाने के लिए प्रेरित कर सकती है तो 190 (1) के तहत मामले का संज्ञान लिया जा सकता है जहाँ धारा 200 के तहत परिवादी और गवाहों का परीक्षण (examine) करना अनिवार्य नहीं होगा. पर क्योंकि मजिस्ट्रेट को नाराज़ी याचिका (protest petition) को ‘परिवाद’ (complaint) मानते हुए संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

शिकायतकर्ता/ परिवादी के पास यह समाधान है कि वह नया परिवाद दायर करें और मजिस्ट्रेट को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और 2002 के तहत प्रक्रिया का अनुसरण करने हेतु प्रेरित करें.” उच्च न्यायालय के आदेश को अमान्य घोषित करते हुए पीठ ने कहा – “इस मामले में नाराज़ी याचिका के साथ गवाहों की सूची नहीं है।

नाराज़ी याचिका में फाइनल रिपोर्ट अस्वीकार करने और याचिका स्वीकार करने की प्रार्थना है. हालांकि हम यह नहीं सुझाव दे रहे कि याचिका के प्रारूप के आधार पर पूर्ण रूपेण यह निर्णय लिया जा सकता है कि याचिका, नाराज़ी याचिका है या परिवाद, हम यह सोचते है कि मूलभूत रूप से, इस मामले में नाराज़ी याचिका, द्वितीय प्रतिवादियों की फाइनल रिपोर्ट पर आपत्तियों का एक संक्षिप्त रूप है.” मजिस्ट्रेट का कर्तव्य तुरंत फाइनल रिपोर्ट स्वीकार करने तक सीमित नहीं है-

कोर्ट ने इस फैसले में यह भी बताया है कि रेफेर रिपोर्ट मिलने पर मजिस्ट्रेट को क्या प्रक्रिया अपनानी चाहिए- “इस मामले में FIR दर्ज़ होने के बाद अन्वेषण अधिकारी ने तफ्तीश की, परिवादी, उनकी पत्नी और पुत्र के बयान लिए गए थे इसके अतिरिक्त जिन डॉक्टरों ने द्वितीय परिवादी की पुत्री का इलाज किया था, उनके भी बयान लिए गए थे. अन्वेषण अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ऐसी कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर अभियुक्त को ट्रायल पर भेजा जा सके.

जब इस तरह की रिपोर्ट कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो इस बात पर कोई दोराय नहीं कि मजिस्ट्रेट उस रिपोर्ट को रिजेक्ट कर सकता है और मामले में उस अपराध का संज्ञान लेते हुए, जो उसकी नज़र में घटित हुआ है, आगे बढ़ सकता है. या फिर वह, अन्वेषण अधिकारी द्वारा रिकॉर्ड किये गए गवाहों के बयान सहित प्रस्तुत की गई सामग्री के आधार पर, फाइनल रिपोर्ट को स्वीकार करने का निर्णय ले सकता है. वह यह मत भी ले सकता है कि अपराध का संज्ञान लिया जाये या न लिया जाये यह निर्णय करने से पूर्व और तफ्तीश की आवश्यकता है.

नि: संदेह, यह सत्य है कि अगर मजिस्ट्रेट धारा 173 के तहत फाइनल रिपोर्ट को स्वीकार करता है और अभियुक्त को मुक्त करता है तो यह अनिवार्य है कि वह नाराज़ी याचिका की विषय सामग्री पर विचार करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचे।

अन्वेषण अधिकारी अपनी तरफ से फाइनल रिपोर्ट दायर करने के बाद मामले में विषय सामग्री की इति मान सकता है और यह सोच सकता है कि मामले में अब आगे तफ्तीश की आवश्यकता नहीं है. पर मजिस्ट्रेट का कर्तव्य तुरंत फाइनल रिपोर्ट स्वीकार करने तक सीमित नहीं है.

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यह मजिस्ट्रेट के लिए अनिवार्य है कि वह वस्तु सामग्री पर सविस्तार विचार करे, और नाराज़ी याचिका की विषय वस्तु देख कर और परिवादी को सुनकर, आगे का मार्ग तय करें कि क्या मामले में आगे कार्यवाही की आवश्यकता है या फिर कार्यवाही को यही ख़त्म कर देना चाहिए.” इस मामले के तथ्यों में, नाराजी याचिका और संलग्नकों (जो मुख्यत: एफिडेविट होते है) में लगाए गए आरोपों की प्रकृति को देखते हुए, अगर मजिस्ट्रेट को, फाइनल रिपोर्ट और धारा 160 के तहत बयानों के आधार पर यह भरोसा हो जाता है कि प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, तो
नि: संदेह, मजिस्ट्रेट को नाराज़ी याचिका (protest petition) को ‘परिवाद’ (complaint) मानते हुए संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

यह तथ्य कि किसी मामले में उसके पास नाराज़ी याचिका को परिवाद के तौर पर देखने का अधिकार क्षेत्र हो सकता है, वह एक अलग मुद्दा है. “नि: संदेह, अगर वह नाराज़ी याचिका को परिवाद के रूप में देखता है तो उसे धारा 200 और 2002 में लिखित प्रक्रिया का अनुसरण करना होगा।

दूसरे शब्दों में परिवादी और गवाहों को परीक्षण (examine) करना होगा. नि: संदेह, परिवादी द्वारा नाराज़ी याचिका में मजिस्ट्रेट को उपलब्ध करवाए गए कागजातों/सामग्री के आधार पर, मामले विशेष में, सामग्री की मूलभूत प्रकृति को और उसके फाइनल रिपोर्ट पर प्रभाव को देखते हुए इस पर भरोसा किया जा सकता है। अर्थात प्रस्तुत की गयी सामग्री इस प्रभाव की है कि वह कोर्ट को अन्वेषण अधिकारी के निष्कर्षों के इतर जाने के लिए प्रेरित कर सकती है तो 190(1) के तहत मामले का संज्ञान लिया जा सकता है जहाँ धारा 200 के तहत परिवादी और गवाहों का परीक्षण (examine) करना अनिवार्य नहीं होगा. पर क्योंकि मजिस्ट्रेट को नाराज़ी याचिका (protest petition) को ‘परिवाद’ (complaint) मानते हुए संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

शिकायतकर्ता/परिवादी के पास यह समाधान है कि वह नया परिवाद दायर करें और मजिस्ट्रेट को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और 2002 के तहत प्रक्रिया का अनुसरण करने हेतु प्रेरित करें.

“यदि नाराज़ी याचिका ‘परिवाद’ की शर्तों को पूर्ण करती है तो उसे परिवाद की तरह मानकर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और 202 के तहत मजिस्ट्रेट एक्शन ले सकता है। इस मामले में नाराज़ी याचिका के साथ गवाहों की सूची नहीं है। नाराज़ी याचिका में फाइनल रिपोर्ट अस्वीकार करने और याचिका स्वीकार करने की प्रार्थना है।

हालांकि हम यह नहीं सुझाव दे रहे कि याचिका के प्रारूप के आधार पर पूर्ण रूपेण यह निर्णय लिया जा सकता है कि याचिका नाराज़ी याचिका है या परिवाद, हम यह सोचते है कि मूलभूत रूप से, इस मामले में नाराज़ी याचिका, द्वितीय प्रतिवादियों की फाइनल रिपोर्ट पर आपत्तियों का एक संक्षिप्त रूप है।

राजेश कुमार गुप्ता (लेखक वाराणसी के फौजदारी वकील हैं और कानूनी मामलों के अनुभवी एवं जानकार)

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