“वकील अपनी व्यक्तिगत हैसियत से विवाह संपन्न कर सकते हैं, पेशेवर हैसियत से नहीं”
सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि तमिलनाडु में आत्म-सम्मान विवाह गोपनीयता में और अधिवक्ताओं की मौजूदगी में नहीं किया जा सकता।न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (तमिलनाडु राज्य संशोधन अधिनियम) की धारा 7 (ए) के तहत अधिवक्ताओं के लिए सुयमरियाथाई विवाह को संपन्न करने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है।
न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि ‘शादी करने का इरादा रखने वाले जोड़े पारिवारिक विरोध या अपनी सुरक्षा के डर जैसे विभिन्न कारणों से सार्वजनिक घोषणा करने से बच सकते हैं। ऐसे मामलों में, सार्वजनिक घोषणा को लागू करने से जीवन खतरे में पड़ सकता है और संभावित रूप से मजबूर अलगाव हो सकता है। पीठ ने अपने फैसले में विभिन्न उदाहरणों का भी हवाला देते हुए कहा है कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन साथी चुनने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। शीर्ष न्यायालय के समक्ष तमिलनाडु संशोधन द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में शामिल किए गए धारा-7ए के अनुसार स्व-विवाह प्रणाली से जुड़े मामले में यह फैसला दिया हैा। धारा 7ए के तहत हिंदू के लड़का लड़की अपने दोस्तों, रिश्तेदारों या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में बिना रीति-रिवाजों का पालन किए या किसी पुजारी द्वारा विवाह की घोषणा किए बगैर विवाह कर सकते हैं।
मामला संक्षेप में-
मद्रास उच्च न्यायालय ने 2014 के अपने एक फैसले के आधार पर यह फैसला दिया कि ‘अधिवक्ताओं द्वारा कराई गई शादियां वैध नहीं हैं और स्वाभिमान विवाह यानी सेल्फ रेस्पेक्ट मैरिज को गुप्त रूप से संपन्न नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय के फैसले के बाद 5 मई, 2023 को मद्रास उच्च न्यायालय ने लावर्सन बनाम पुलिस अधीक्षक और अन्य मामले में एक वकील द्वारा जारी किए गए स्व विवाह प्रणाली के आधार पर जारी शादी के प्रमाण पत्र पर भरोसा करने से इनकार कर दिया और एक व्यक्ति द्वारा दाखिल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया। याचिका में व्यक्ति ने आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी को उसके ससुरालव वाले ने अवैध रूप से हिरासत में रखा है। इतना ही नहीं, उच्च न्यायालय ने राज्य विधिज्ञ परिषद को को ऐसे फर्जी विवाह प्रमाणपत्र जारी करने वाले अधिवक्ताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के लिए कहा था। इसके बाद उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि उच्च न्यायालय द्वारा बालाकृष्णन पांडियन मामले में पारित उस फैसले को अनुचित और गलत बताया जिसमें प्रत्येक विवाह के लिए सार्वजनिक अनुष्ठान या घोषणा को अनिवार्य बताया।
शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि ऐसा दृष्टिकोण अपेक्षाकृत सरल है क्योंकि आए दिन माता-पिता के दबाव के चलते शादी करने के इरादा रखने वाले जोड़े ऐसे विरोध के कारण शादी नहीं कर सकते हैं। पीठ ने कहा है कि ऐसे में इस तरह के शादी करने वाले जोड़े सार्वजनिक घोषणा नहीं कर सकते हैं क्योंकि ऐसा करने से उनके जीवन खतरे में पड़ सकता है।
पीठ ने कहा है कि इस तरह की घोषणा से जोड़े को शारीरिक दंड, धमकी, या जबरन या जबरदस्ती अलगाव भी उन जोड़ों को झेलना पड़ता है जो अपने परिवार की इच्छा के खिलाफ शादी करते हैं।
शीर्ष न्यायालय ने वकील की भूमिका को लेकर उच्च न्यायालय द्वारा किए गए टिप्पणी को भी अनुचित बताया गया। पीठ ने कहा कि वकील अपनी व्यक्तिगत हैसियत से विवाह संपन्न करा सकते हैं, पेशेवर हैसियत से नहीं।
अदालत ने कहा कि वकील, मित्र, रिश्तेदार या सामाजिक कार्यकर्ता की अपनी व्यक्तिगत क्षमता में, ऐसी शादियां करा सकते हैं, लेकिन अदालत के अधिकारी के रूप में कार्य करते समय नहीं।
वकील ए. वेलन के माध्यम से दायर विशेष अनुमति याचिका में मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें उन वकीलों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करने का आदेश दिया गया था, जिनके तत्वावधान में ये आत्म-सम्मान विवाह संपन्न हुए थे।
इसके अलावा, उच्च न्यायालय के आदेश में कहा गया था कि आसपास के कुछ अजनबियों के साथ गुप्त रूप से किया गया विवाह तमिलनाडु में लागू हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 और 7-ए के तहत आवश्यक नहीं होगा।
सुयमरियाथाई दो हिंदुओं के बीच विवाह का एक रूप है, जिसे रिश्तेदारों, दोस्तों या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में संपन्न किया जा सकता है और पुजारी की मौजूदगी जरूरी नहीं है।
केस टाइटल – इल्वारासन बनाम पुलिस अधीक्षक