राजस्थान उच्च न्यायालय ने घूसखोरी के मामले में एक अभियुक्त को जमानत मंजूर करने के लिए एक न्यायिक अधिकारी (Judicial officer) को नौकरी से बर्खास्त कर दिया था।
शीर्ष न्यायालय (Supreme Court) ने अपने फैसले में कहा कि महज संदेह के आधार पर कदाचार स्थापित नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही इसने राजस्थान हाई कोर्ट (Rajasthan High Court) का फैसला निरस्त करते हुए बर्खास्त न्यायिक अधिकारी को नौकरी में बहाल करने का आदेश दिया।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने घूसखोरी के मामले में एक अभियुक्त को जमानत मंजूर करने के लिए एक न्यायिक अधिकारी (Judicial Officer) को नौकरी से मुअत्तल कर दिया था।
न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने अभय जैन नामक न्यायिक अधिकारी की अपील स्वीकार कर ली। जैन ने उस याचिकाकर्ता की जमानत याचिका मंजूर कर ली थी, जिसे कुछ दिन पहले उच्च न्यायालय से निराशा हाथ लगी थी। इसके बाद उन्हें ‘कदाचार’ के आरोप में 2016 में बर्खास्त कर दिया गया था।
पीठ ने कहा-
पीठ की ओर से न्यायमूर्ति सरन द्वारा लिखे गये 70 पन्नों के फैसले में कहा गया है, ‘‘हम मानते हैं कि याचिकाकर्ता इस मामले में लापरवाही बरतने का दोषी हो सकता है कि उसने केस फाइल को ठीक से नहीं पढ़ा था और उच्च न्यायालय के नोटिस का संज्ञान नहीं लिया था, जो उस फाइल में मौजूद था। लेकिन लापरवाही को कदाचार नहीं कहा जा सकता।”
हम मानते हैं कि अपीलकर्ता इस अर्थ में लापरवाही का दोषी हो सकता है कि उसने मामले की फाइल को ध्यान से नहीं देखा और हाईकोर्ट के आदेश पर ध्यान नहीं दिया जो उसकी फाइल पर था। इस लापरवाही को कदाचार नहीं माना जा सकता है। इसके अलावा, जांच अधिकारी वस्तुतः अपील की अदालत के रूप में बैठे थे, जमानत देने के आदेश में छेद तलाश रहे थे, तब भी जब उन्हें जमानत आदेश देने के लिए कोई बाहरी कारण नहीं मिला। विशेष रूप से, वर्तमान मामले में, एक निरंतर अवैध आदेशों की कड़ी नहीं थी जो बाहरी विचारों के लिए पारित किए जाने का आरोप लगाया गया है। वर्तमान मामला केवल एक जमानत आदेश के इर्द-गिर्द घूमता है, और वह भी सक्षम अधिकार क्षेत्र के साथ पारित किया गया था। जैसा कि इस न्यायालय द्वारा साधना चौधरी (सुप्रा) में सही ठहराया गया है, केवल संदेह “कदाचार” का गठन नहीं कर सकता। कदाचार की किसी भी ‘संभावना’ को मौखिक या दस्तावेजी सामग्री के समर्थन की आवश्यकता है, और वर्तमान मामले में इस आवश्यकता को पूरा नहीं किया गया है। मैं इस विशेष तथ्य के आलोक में महत्व देता हूं कि वर्तमान अपीलकर्ता के खिलाफ अवैध घूस का कोई आरोप नहीं था। जैसा कि इस न्यायालय ने ठीक ही कहा है, ऐसे राहत-उन्मुख न्यायिक दृष्टिकोण अपने आप में किसी अधिकारी की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर आक्षेप लगाने का आधार नहीं हो सकते हैं।
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील स्वीकारते हुए एक न्यायिक अधिकारी की सेवा मुक्ति को बरकरार रखते हुए अपने निर्णय में कोर्ट ने कहा कि-
अपीलकर्ता के खिलाफ दायर आरोप अस्पष्ट प्रकृति के हैं और बाहरी कारणों से जमानत आदेश पारित करने के उक्त आरोप के संबंध में कोई विवरण प्रदान नहीं किया गया है। भले ही अपीलकर्ता के कार्य को लापरवाह माना जाता हो, इसे “कदाचार” के रूप में नहीं माना जा सकता है । अपीलकर्ता को सेवा की निरंतरता और वरिष्ठता सहित सभी परिणामी लाभों के साथ बहाल किया जाएगा, लेकिन वो केवल 50% बैकवेज़ का भुगतान पाने का हकदार है, जिसका भुगतान चार महीने की अवधि के भीतर किया जा सकता है।
केस टाइटल – अभय जैन बनाम राजस्थान न्यायिक क्षेत्राधिकार वाला हाईकोर्ट
कोरम – न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति विनीत सरन