सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक मामले की सुनवाई में कहा कि सिविल और क्रिमिनल मामलों में निचली अदालत या हाईकोर्ट की ओर से लगाई गई स्थगन (STAY ORDER) खुद-ब-खुद रद्द नहीं हो सकती। चीफ जस्टिस डॉ डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली वाली पांच जजों की बेंच सुप्रीम कोर्ट के 2018 के उस फैसले से सहमत नहीं हुई, जिसमें कहा गया था कि निचली अदालत और हाईकोर्ट के स्टे ऑर्डर छह महीने बाद अपने आप ही रद्द हो जाने चाहिए, बशर्ते उन्हें विशेष तौर पर आगे न बढ़ाया गया हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो गरीब याचिकाकर्ता हैं, जिन्हें उच्च न्यायलय से स्थगन मिला है अगर उनका स्टे खुद ब खुद रद्द हो जाता है तो वह फिर महंगे न्याय व्यवस्था का बोझ नहीं झेल पाएंगे।
संविधानिक अदालतों को समयसीमा तय नहीं करना चाहिए-
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले को बदलते हुए कहा कि सामान्य तौर पर संवैधानिक अदालतों को किसी भी अदालत में लंबित मामलों के निपटारे के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधानिक अदालतों को किसी निचली अदालत में लंबित किसी एक मामले के लिए एक निश्चित समयसीमा तय नहीं करना चाहिए।
इस तरह के मामले की स्थिति वही जज जानते हैं जो इसकी सुनवाई कर रहे होते हैं। एक हाईकोर्ट संविधानिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट से स्वतंत्र होता है और वो सुप्रीम कोर्ट के नीचे नहीं है। इसलिए हाईकोर्ट के जजों को तार्किक आधार पर प्राथमिकता तय करने का अधिकार है।
हम हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकते-
कोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 ARTICLE 142 के तहत मिली शक्ति का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के अंतरिम राहत देने के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकता। यह दखल इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि अनुच्छेद 142 ARTICLE 142 के तहत दी गई शक्ति का इस्तेमाल करके वह हाईकोर्ट के अंतरिम आदेशों को सिर्फ छह माह के लिए वैध बनाने वाली सीमा तय कर रहा है।
इस तरह की पाबंदियां लगाना, संविधान के मूल ढांचे का एक अनिवार्य हिस्सा माने जाने वाले अनुच्छेद 226 ARTICLE 226 के तहत हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र को कमजोर करने जैसा होगा। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के तीन न्यायाधीशों के फैसले को पलट दिया। 2018 के फैसले में कहा गया था कि अगर हाईकोर्ट किसी मामले में कार्यवाही पर रोक लगाने का आदेश देता है, और छह महीने के अंदर उस आदेश को दोबारा जारी नहीं किया जाता है, तो रोक अपने आप समाप्त हो जाएगी।
गरीब याचिकाकर्ता महंगे न्याय व्यवस्था का बोझ नहीं झेल पाएगा-
बेंच ने कहा कि जो गरीब याचिकाकर्ता हैं, जिन्हें हाईकोर्ट से स्टे मिला है अगर उनका स्टे खुद ब खुद रद्द हो जाता है तो वह फिर महंगे न्याय व्यवस्था का बोझ नहीं झेल पाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना हाईकोर्ट को सुने इस तरह के मामले में फैसले नहीं होने चाहिए।
वर्ष 2018 में आया था स्टे वाला फैसला-
कोर्ट ने अपने नए फैसले में, चीफ जस्टिस डॉ डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस पंकज मिश्रा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के अधीनस्थ नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 ARTICLE 142 के तहत अपनी व्यापक शक्ति का इस्तेमाल करके अलग-अलग तरह के मामलों के निपटारे के लिए समय सीमा तय नहीं कर सकता है। 2018 का फैसला जस्टिस ए के गोयल, जस्टिस आर एफ नरिमन और जस्टिस नवीन सिन्हा ने दिया था।
उच्च न्यायालय की शक्ति पर इस तरह की बाधाएं अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र पर सेंध लगाने के समान होंगी, जो एक आवश्यक विशेषता है जो संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। इसलिए, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए स्थगन को स्वत: रद्द नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने उन सभी मामलों पर, जिनमें अंतरिम रोक लगाई गई है, दिन-प्रतिदिन के आधार पर एक समय सीमा के भीतर फैसला करने के लिए जारी निर्देश को अस्वीकार कर दिया। यह भी माना गया कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र के प्रयोग में इस तरह के व्यापक निर्देश जारी नहीं किए जा सकते हैं।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जिन मामलों में केवल एशियन रिसर्फेसिंग के मामले में निर्णय के आधार पर स्टे के स्वत: निरस्त होने के परिणामस्वरूप मुकदमे समाप्त हो गए हैं, स्टे के स्वत: निरस्त होने के आदेश वैध रहेंगे। अपनी सहमति वाली राय में, न्यायमूर्ति पंकज मिथल ने कहा, “…स्थगन आदेश को हटाने के लिए एक आवेदन दाखिल करना अनुच्छेद 226(3) के तहत स्थगन आदेश को स्वचालित रूप से हटाने के लिए एक अनिवार्य शर्त है, यदि इस तरह के आवेदन पर निर्णय नहीं लिया जाता है।” दो सप्ताह का समय निर्धारित. … किसी भी कार्यवाही में दिया गया स्थगन आदेश किसी विशेष अवधि की समाप्ति पर स्वचालित रूप से तब तक निरस्त नहीं होगा जब तक कि उस आशय का एक आवेदन दूसरे पक्ष द्वारा दायर नहीं किया गया हो और एक मौखिक आदेश द्वारा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए निर्णय नहीं लिया गया हो। उन्होंने आगे कहा कि कभी-कभी, न्याय की तलाश में हम अन्याय कर बैठते हैं और एशियन रिसर्फेसिंग इसका एक स्पष्ट उदाहरण है। तदनुसार, शीर्ष अदालत ने सवालों का जवाब दिया, आवश्यक दिशानिर्देश जारी किए और अपने फैसले को खारिज कर दिया।
वाद शीर्षक – हाई कोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद बनाम यूपी राज्य। एवं अन्य.