सुप्रीम कोर्ट: कोर्ट द्वारा आरोपी के बरी होने का ये अर्थ नहीं कि नियोक्ता आप पर अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं कर सकता-

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शीर्ष अदालत ने 29 नवंबर, 2017 को कर्नाटक उच्च न्यायलय की कलबुर्गी पीठ के एक फैसले के खिलाफ कर्नाटक सरकार द्वारा अपील को स्वीकार करते हुए यह टिप्पणी की।

कर्नाटक उच्च न्यायलय ने बीजापुर जिले के एक ग्राम लेखाकार उमेश की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के फैसले को रद्द कर दिया था। उस पर रिश्वत लेने का आरोप था।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सुनवाई के दौरान कहा की किसी आपराधिक मामले में आरोपी को बरी करना नियोक्ता को उसके खिलाफ कार्रवाई करने से नहीं रोकता है। क्योंकि अनुशासनात्मक जांच को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत मुकदमे पर लागू होने वाले सिद्धांतों से अलग हैं।

उच्चतम न्यायलय ने घूसखोरी के आरोप में कर्नाटक सरकार के एक कर्मचारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को बरकरार रखा।

न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने कहा, आपराधिक मुकदमे में अभियोजन पक्ष को संदेह से परे मामले को स्थापित करने का भार होता है। आरोपी को खुद निर्दोष होने का अनुमान लगाने का हक है। अनुशासनात्मक कार्यवाही का उद्देश्य एक कर्मचारी द्वारा कदाचार के आरोप की जांच करना है।

पीठ ने कहा, आपराधिक अभियोजन में जहां आरोप को उचित संदेह से परे साबित करना होता है, वहीं उसके विपरीत अनुशासनात्मक कार्यवाही में कदाचार का आरोप संभावनाओं की प्रबलता पर स्थापित किया जाता है। आपराधिक मुकदमे पर लागू होने वाले साक्ष्य के नियम अनुशासनात्मक जांच को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत से अलग हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 29 नवंबर, 2017 को कर्नाटक की कलबुर्गी पीठ के एक फैसले के खिलाफ कर्नाटक सरकार द्वारा अपील को स्वीकार करते हुए यह टिप्पणी की। हाईकोर्ट ने बीजापुर जिले के एक ग्राम लेखाकार उमेश की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के फैसले को रद्द कर दिया था। उस पर रिश्वत लेने का आरोप था।

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शीर्ष अदालत ने कहा –

“आपराधिक कानून के तहत दंडनीय अपराध के लिए अभियोजन में, उचित संदेह से परे अपराध की सामग्री को स्थापित करने के लिए अभियोजन पक्ष पर बोझ होता है। आरोपी निर्दोषता के अनुमान का हकदार है। नियोक्ता द्वारा अनुशासनात्मक कार्यवाही का उद्देश्य एक कर्मचारी द्वारा कदाचार के आरोप की जांच करने का होता है जिसके परिणामस्वरूप रोजगार के संबंध को नियंत्रित करने वाले सेवा नियमों का उल्लंघन होता है। एक आपराधिक अभियोजन के विपरीत जहां उचित संदेह से परे आरोप स्थापित किया जाना है, अनुशासनात्मक कार्यवाही में, कदाचार का आरोप संभावनाओं की प्रबलता पर स्थापित होने के लिए लगाया जाता है। एक आपराधिक ट्रायल पर लागू होने वाले साक्ष्य के नियम अनुशासनात्मक जांच को नियंत्रित करने वाले नियमों से अलग हैं। एक आपराधिक मामले में आरोपी का बरी होना नियोक्ता को अनुशासनात्मक क्षेत्राधिकार अभ्यास में आगे बढ़ने से नहीं रोकता है।”

हाईकोर्ट का मानना था कि आपराधिक मामले में आरोपी को बरी कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, हाईकोर्ट ने एक ऐसे डोमेन (क्षेत्र) पर ध्यान केंद्रित किया जो नियोक्ता के अनुशासनात्मक अधिकार क्षेत्र में आता है। जांच नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार की गई। जांच अधिकारी और अनुशासनात्मक अथॉरिटी के निष्कर्ष साक्ष्य के संदर्भ में टिकाऊ हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा की आपराधिक मामले में दोषमुक्ति, एक आपराधिक मामले में अभियुक्त का बरी होना नियोक्ता को अनुशासनात्मक क्षेत्राधिकार के प्रयोग में आगे बढ़ने से नहीं रोकता है।

केस टाइटल – The State of Karnataka & Anr. Versus Umesh
केस नंबर – Civil Appeal Nos. 1763-1764 of 2022; March 22, 2022
कोरम – न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत

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