दिल्ली उच्च न्यायालय Delhi High Court ने सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court द्वारा निर्धारित कानून की एक स्थिति को दोहराया और कहा कि ट्रायल कोर्ट Trail Court खुद दिए गए आजीवन कारावास के दंड को शेष प्राकृतिक जीवन के लिए तय करने के लिए अहर्ता नहीं रखते है।
न्यायमूर्ति मुक्ता गुप्ता और न्यायमूर्ति मिनी पुष्कर्ण की खंडपीठ ने तीन साल की नाबालिग बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में तीन लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा कि अपराध पैशाचिक और क्रूर ढंग से किया गया है।
ट्रायल कोर्ट ने तीनों को भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2) और धारा 302 के तहत दोषी ठहराया था और उन्हें शेष प्राकृतिक जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
हाई कोर्ट बेंच ने सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन और अन्य के अनुसार, किसी विशिष्ट अवधि के लिए या दोषी के जीवन के अंत तक, मृत्युदंड के विकल्प के रूप में, संशोधित सजा देने की शक्ति केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास ही है, न कि किसी अन्य न्यायालय के पास।
हाईकोर्ट का विचार था कि भारतीय दंड संहिता के धारा 376(2) और 302/34 IPC के तहत दंडनीय अपराधों के लिए अपीलकर्ताओं को शेष आजीवन कारावास की सजा देने की हद तक सजा पर आक्षेपित आदेश कायम नहीं रखा जा सकता है।
उच्च न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न इस प्रकार था कि क्या हाईकोर्ट अपने अपीलीय क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए यह निर्देश दे सकता है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई आजीवन कारावास शेष जीवन या एक निश्चित अवधि के लिए होगी।
कोर्ट ने कहा कि हालांकि ट्रायल कोर्ट दोषियों के शेष प्राकृतिक जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा नहीं दे सकता है, हाईकोर्ट हालांकि अपने अपीलीय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए उक्त आदेश को खारिज कर सकता है, लेकिन मामले के तथ्यों पर विचार करते हुए वह इसी सजा को दे सकता है।
हाई कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में निर्धारित स्थिति को दोहराया जिसमें यह माना गया था कि किसी भी विशिष्ट अवधि के लिए या मौत की सजा के विकल्प के रूप में दोषी के जीवन के अंत तक की सजा के रूप में संशोधित दंड को लागू करने की शक्ति का प्रयोग केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है, न कि किसी अन्य न्यायालय द्वारा।
हाई कोर्ट ने कहा कि गौरी शंकर बनाम पंजाब राज्य में उक्त स्थिति को दोहराया गया था।
इस प्रकार, कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2) और 302 आजीवन कारावास की सजा देकर अपने अपीलीय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया। यह देखा गया कि मामले के तथ्यों में शेष जीवन के लिए आजीवन कारावास एक उपयुक्त सजा होगी।
यह देखते हुए कि ट्रायल कोर्ट द्वारा मौत की सजा नहीं दी गई थी, कोर्ट ने कहा कि आजीवन कारावास की सजा जो आमतौर पर छूट के बाद चौदह साल तक होगी, पीड़ित के लिए अत्यधिक अपर्याप्त, अन्यायपूर्ण और अनुचित होगी।
हाई कोर्ट ने कहा-
“मौजूदा मामले में, तीन अपीलकर्ताओं को सामूहिक बलात्कार और 3 साल की नाबालिग की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया है, जिससे उसके निजी अंगों को बेरहमी से काट दिया गया और उसकी हत्या कर दी गई।”
Consequently, upholding the conviction of the appellants for the offences punishable under Sections 376(2)(g) IPC, 302 IPC, 377 IPC and 201 IPC, and of appellant Jamahir for offence punishable under Section 363 IPC, though the order on sentence to the extent it directs the appellants to undergo imprisonment for the remainder of life as passed by the learned Trial Court is set aside for offences punishable under Sections 376(2) and 302 IPC, however, in exercise of its appellate jurisdiction and in view of diabolic and brutal manner in which rape with murder of a three year old child was committed, this Court deems it fit to award the same sentence i.e. remainder of the life for offences punishable under Sections 376(2) and 302 IPC. The sentence of simple imprisonment for 10 years for offence punishable under Section 377 IPC to all the appellants and imprisonment for 5 years to the appellant Jamahir for offence punishable under Section 363 IPC along with the fine imposed and the default sentences is upheld.
अन्तः अदालत ने कहा कि अपीलकर्ताओं को शेष आजीवन कारावास मामले के तथ्यों में एक उपयुक्त सजा होगी।
केस टाइटल – जमाहिर उर्फ जवाहर बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य सरकार
केस नम्बर – CRL.A. 135/2022, CRL.A.183/2021 & CRL.A.228/2021