Landlord Tenant Case पर सुप्रीम कोर्ट का classic Judgment: 1 लाख का पेनल्टी भी दो और 11 साल का रेंट भी चुकाओ-

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मकान मालिक (Landlord) और किरायेदारों (Tenants) के झगड़े किसी भी जगह आम बात हैं। विवाद बढ़ने पर मामला कोर्ट में भी जाता है और फैसले भी आते हैं।

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के सामने एक ऐसा अनोखा केस आया जिसे कोर्ट ने “क्लासिक केस” “Classic Case” कहा है। न्यायिक प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल कैसे किया जाता है, इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे “क्लासिक केस” की संज्ञा दी है।

उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल के अलीपुर में दुकान हड़पने के मामले में सुनवाई की। इस दरमियान कोर्ट ने किराएदार पर एक लाख का जुर्माना लगाया और 15 दिनों के अंदर दुकान बाजार दर पर मकान मालिक को सौंपने का आदेश दिया। कोर्ट के आदेश को ट्रायल कोर्ट के समक्ष रखा जा रहा है. दरअसल, किराएदार ने मकान मालिक की संपत्ति को लगभग तीन दशकों तक उससे वंचित रखा था।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी की पीठ ने इस मामले को “क्लासिक मामला” कहा। पीठ ने कहा की किसी व्यक्ति द्वारा उसके अधिकारों को लूटने के लिए न्यायिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग किया गया है। पीठ ने आदेश दिया कि संपत्ति (पश्चिम बंगाल के अलीपुर की एक दुकान) को शीर्ष अदालत के आदेश के 15 दिनों के भीतर मकान मालिक को सौंप दिया जाएगा, जिसे वहां ट्रायल कोर्ट के समक्ष रखा गया है।

क्या था पूरा मामला?

दरअसल मामला 1967 का है, जब लबन्या प्रवा दत्ता ने अलीपुर में अपनी दुकान 21 साल के लिए लीज पर दी। लीज खत्म होने के बाद 1988 में मकान मालिक ने किरायेदार से दुकान खाली करने के लिए कहा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तब 1993 में सिविल कोर्ट में किरायेदार को निकालने के लिए केस दाखिल हुआ जिसका फैसला 2005 में मकान मालिक के पक्ष में आया। इसके बाद 2009 में केस फिर दाखिल हुआ और 12 साल तक खिंचा।

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न्यायिक समय की बर्बाद करने पर न्यायलय ने की निंदा-

न्यायिक समय की बर्बादी और कार्यवाही को घसीटने के लिए याचिकाकर्ता (सिन्हा) को तीन महीने की समान अवधि में मकान मालिक को भुगतान करने के लिए एक लाख की लागत का बोझ उठाना होगा। अलीपुर की दुकान को 1967 में सिन्हा के चाचा को 21 साल की अवधि के लिए एक लेबनान प्रावा दत्ता ने पट्टे पर दिया था। पट्टे की अवधि पूरी होने के बाद, मकान मालिक ने 1988 में बेदखल की गई संपत्ति को प्राप्त करने की मांग की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। किरायेदार को बेदखल करने का एक मुकदमा 1993 में दायर किया गया था, जिसमें अगस्त 2005 में अलीपुर में एक सिविल कोर्ट द्वारा मकान मालिक के पक्ष में फैसला सुनाया गया था।

याचिकाकर्ता के चाचा ने सुप्रीम कोर्ट में दी थी चुनौती-

इस आदेश को सिन्हा के चाचा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी लेकिन, बेदखली आदेश को सभी श्रेष्ठ अदालतों ने बरकरार रखा था। 2009 में, मकान मालिक को फिर से एक अदालत में जाना पड़ा, जिसमें किरायेदार को निष्पादन की कार्यवाही दायर करके बेदखल कर दिया गया। इसके बाद सिन्हा ने खुद को मूल किरायेदार का भतीजा होने और व्यवसाय में एक भागीदार होने का दावा किया था, जो उनके चाचा ने उसी संपत्ति से चलाया था।

सिन्हा को निष्कासन का मुख्य आदेश देने की कोशिश को पहले सितंबर 2011 में और उसके बाद अप्रैल 2016 में एक अपीलकर्ता अदालत ने निरस्त कर दिया। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने नवंबर 2019 में उनकी याचिका भी खारिज कर दी. इसके बाद भी सिन्हा के पास कब्जा बना रहा।

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हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ, सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसने किरायेदार को मामले दर्ज करके विवाद को खींचने के लिए निंदा की और उस पर जुर्माना लगाने का आदेश जारी दिया।

सर्वोच्च अदालत की पीठ ने मूल काश्तकार के भतीजे देबाशीष सिन्हा की याचिका को खारिज करते हुए, जिसने अपने चाचा का व्यवसायिक भागीदार होने का दावा किया, कोर्ट ने किरायेदार पर 1 लाख रुपये की पेनल्टी लगाने के साथ साथ उसे मार्च, 2010 से बाजार दरों पर किराए पर देने का आदेश दिया। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि सिन्हा को तीन महीने के भीतर भुगतान करना होगा।

केस टाइटल – देबाशीष सिन्हा बनाम श्रीजीब सिन्हा & अन्य
केस नंबर – Special Leave to Appeal (C) No(s). 4148/2020
कोरम – न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी

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