विधायिका न्यायपालिका के टकराव का चरमोत्कर्ष, जब सदन ने दोनों न्यायमूर्तियों को गिरफ्तार कर विधानसभा के सामने प्रस्तुत करने का दिया आदेश-

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विधान सभा स्पीकर ने याचिका से सीधे जुड़े दोनों न्यायमूर्तियों को और एडवोकेट बी सालोमन को हिरासत में लेकर सदन के समक्ष उपस्थित करने के निर्देश दिए-

विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव का यह चरमोत्कर्ष था जब मजबूर होकर उत्तरप्रदेश विधानसभा को दोनों जजों और वकील को हिरासत में सदन के समक्ष उपस्थित किए जाने का आदेश दिया.

मामला सदन की अवमानना के लिए दंडित एक सोशलिस्ट कार्यकर्ता केशव सिंह को उच्च न्यायलय High Court द्वारा जमानत BAIL दिया जाना इस टकराव का कारण बना था.

तब सूबे में कोंग्रस की सरकार थी और विधानसभा ने अदालत HIGH COURT की इस कार्यवाही को सदन के विशेषाधिकार का उल्लंघन माना. जमानत देने वाले दोनों न्यायाधीशों के साथ ही साथ अधिवक्ताओ को हिरासत में सदन के समक्ष उपस्थित किए जाने का आदेश दिया. दोनों न्यायमूर्ति ने विधानसभा के इस निर्णय को अलग-अलग याचिकाओं के जरिए हाईकोर्ट में चुनौती दी.

न्यायिक इतिहास का संभवतः यह इकलौता मामला था जिसमें याचिकाकर्ता दोनों जजों को छोड़कर हाईकोर्ट के शेष सभी 28 जज मामले को सुनने के लिए एक साथ बैठे और विधानसभा के आदेश के क्रियान्वयन पर रोक लगाई.

उस समय इस टकराव के समाधान के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को हस्तक्षेप करना पड़ा. राष्ट्रपति ने सुप्रीमकोर्ट से परामर्श मांगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद स्थिति और खराब होने से बची. यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय की आलोचना हुई. सोशलिस्ट पार्टी के गोरखपुर के एक कार्यकर्ता केशव सिंह ने कांग्रेस विधायक नरसिंह नारायण पांडे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए एक पैम्फलेट छपवा कर वितरित किया था. इसका वितरण विधानसभा की लाबी के प्रवेशद्वार तक किया गया. विधायक पांडे ने इसे झूठा और अपमानजनक बताते हुए विधानसभा सदस्य के रुप में अपने विशेषाधिकार का हनन बताया.

विधानसभा की विशेषाधिकार समिति ने केशव सिंह, श्याम नारायण सिंह और हुब लाल दुबे को दोषी मानते हुए 19 फरवरी 1964 को सदन के समक्ष उपस्थित होने के लिए निर्देश दिया.

इस तारीख को श्याम नारायण सिंह और हुबलाल दुबे उपस्थित हुए. उन्हें निंदित किया गया, लेकिन केशव सिंह ने गोरखपुर से लखनऊ आने के लिए रेल किराए की व्यवस्था न होने के आधार पर उपस्थित होने से इनकार कर दिया. 14 मार्च 1964 को उन्हें गिफ्तार करके सदन के सामने पेश किया गया. तब प्रदेश में श्रीमती सुचेता कृपलानी जी मुख्यमंत्री थी और सूबे में कांग्रेस के सरकार CONGRSS GOVERMENT थी. स्पीकर मदन मोहन वर्मा एक काबिल वकील होने के साथ ही संसदीय-संवैधानिक मामलों के गहरे जानकार थे. उन्होंने पुष्टि के लिए केशव सिंह से नाम पूछा. केशव सिंह ने स्पीकर के सभी सवालों की उपेक्षा की और यहां तक कि उनकी ओर पीठ करके खड़े हो गए. सदन की नाराजगी उस समय और बढ़ गई, जब स्पीकर ने केशव सिंह द्वारा उन्हें 11 मार्च 1964 को लिखे पत्र की जानकारी दी.

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इस पत्र में केशव सिंह ने पैम्फलेट में छपे तथ्यों को सही बताते हुए विधानसभा के फैसले को नादिरशाही फरमान और लोकतंत्र की हत्या कहा था. इस पत्र को सदन की दूसरी बार अवमानना मानते हुए प्रदेश की मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने केशव सिंह के लिए एक सप्ताह के कारावास के दंड का प्रस्ताव प्रस्तुत किया. सदन की स्वीकृति से 14 मार्च को ही केशव सिंह जेल भेज दिए गए. 18 मार्च तक यह एक सामान्य सा मामला था. लेकिन 19 मार्च को जब केशव सिंह की सजा पूरी होने में सिर्फ एक दिन शेष था, के घटनाक्रम ने देश में हलचल मचा दी.

19 मार्च को हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के न्यायमूर्ति नसीरउल्ला बेग और न्यायमूर्ति जी.डी. सहगल की खण्ड पीठ के समक्ष एडवोकेट बी सालोमन ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के जरिये केशव सिंह को विधानसभा द्वारा सजा देने और जेल भेजने को अधिकार क्षेत्र के बाहर और गैरकानूनी बताया.

उस दिन दो बजे जब यह याचिका पेश हुई तो याची के वकील के साथ ही सहायक शासकीय वकील केएन कपूर उपस्थित थे. सुनवाई एक घण्टे बाद तीन बजे के लिए नियत की गई. लेकिन तब सरकार की ओर से कपूर अथवा अन्य कोई वकील पेश नही हुआ. पीठ ने कतिपय शर्तों के साथ केशव सिंह को जमानत दे दी.

उत्तर प्रदेश विधानसभा ने इस याचिका और जजों के इस अंतरिम निर्णय को सदन की कार्यवाही और उसके विशेषाधिकार में हस्तक्षेप माना. कोर्ट से जमानत होने के बाद भी विधानसभा ने केशव सिंह को जेल में ही रखे जाने का आदेश दिया. विधानसभा के फैसले को कोर्ट में चुनौती देने के लिए केशव सिंह को नोटिस जारी किया गया.

विधान सभा स्पीकर ने याचिका से सीधे जुड़े दोनों जजों और एडवोकेट बी सालोमन को हिरासत में लेकर सदन के समक्ष उपस्थित करने के निर्देश दिए. दोनों जजों ने विधानसभा के इस फैसले को अलग-अलग रिट याचिका के जरिए हाईकोर्ट में चुनौती दी.

मुख्य न्यायधीश एमसी देसाई उस समय गोरखपुर में थे. बार के कुछ वरिष्ठ सदस्यों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में उस समय मौजूद वरिष्ठतम न्यायधीश न्यायमूर्ति वशिष्ठ भार्गव को गम्भीर स्थिति से अवगत कराते हुए कहा कि वे विधानसभा के आदेश के विरुद्ध याचिका प्रस्तुत करने जा रहे हैं. न्यायमूर्ति वशिष्ट भार्गव का रुख ठंडा था. उन्होंने आशंका व्यक्त की कि विधानसभा उस याचिका को सुनने वाले जजों के लिए भी गिरफ्तारी वारंट जारी कर सकती है. इसके बाद बार के सदस्यों ने मुख्य न्यायधीश एमसी देसाई से गोरखपुर में सम्पर्क किया. उन्हें सुझाव दिया कि हाई कोर्ट के सभी जज एक साथ इस याचिका की सुनवाई करें. उस दशा में विधानसभा के लिए सभी जजों की गिरफ्तारी का आदेश देना आसान नहीं होगा.

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मुख्य न्यायधीश CJ एमसी देसाई ने कहा कि वह अपने दो जजों की गिरफ्तारी की इजाजत नहीं देंगे. उन्होंने तुरंत ही इलाहाबाद की वापसी और अगले दिन याचिका पर सुनवाई का निर्णय किया. यह भी कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायलय के सभी जज इस पर सुनवाई के लिए एक साथ बैठेंगे. विधानसभा चाहे तो सभी जजों की गिरफ्तारी का आदेश करे.

दूसरे दिन मुख्य न्यायधीश एम.सी.देसाई की अध्यक्षता में बैठी 28 जजों की बेंच ने न्यायमूर्ति नसीर उल्ला, न्यायमूर्ति सहगल और इसी प्रकरण से जुड़ी एक अन्य याचिका पर सुनवाई की. चीफ जस्टिस की अदालत के काफी बड़े कक्ष के बाद भी इतनी संख्या में जजों का एक कतार में बैठना सम्भव नहीं था, इसलिए वे दो कतारों में बैठे.

चीफ स्टैंडिंग काउंसिल शांतिभूषण ( जो बाद में केंद्र में कानून मंत्री) ने सरकार के लिए नोटिस प्राप्त की, अदालत ने उनसे सरकार का पक्ष पूछा. शांतिभूषण ने कहा कि फिलहाल उन्हें याचिका का विरोध करने का कोई निर्देश नहीं प्राप्त हुआ है. अदालत ने इसे रिकार्ड में लिया और तुरंत ही जजों को तलब करने के विधानसभा के आदेश पर रोक लगा दी. शांतिभूषण ने चीफ सेक्रेटरी को अदालत के आदेश की जानकारी दी. इस समय तक इस विवाद की सर्वोच्च स्तर तक सूचना हो चुकी थी.

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इसके समाधान की कोशिश में थे. शांतिभूषण से कहा गया कि वे शासकीय पत्र के माध्यम से लखनऊ में गृह सचिव को अदालत के आदेश की जानकारी दें. गृह सचिव को निर्देशित किया गया कि वे कुछ दिन लखनऊ में उपलब्ध न रहें. उद्देश्य था कि कुछ समय में आगे का रास्ता खोजा जा सके.

तदुपरांत केंद्र सरकार की पहल पर राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन विवादित बिंदु पर सुप्रीमकोर्ट से परामर्श मांगा. सुप्रीमकोर्ट में इस मामले में बहस की शुरुआत एटॉर्नी जनरल सी.के.दफ्तरी ने बहुत ही खुशनुमा अंदाज में इस टिप्पणी से की, कि उनकी भूमिका संघर्षरत दो चैंपियनों का परिचय देने वाले रेफरी की है.

संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ और महाराष्ट्र के एडवोकेट जनरल वरिष्ठ अधिवक्ता एच. एम. सीरवाय उत्तर प्रदेश विधानसभा की ओर से उपस्थित हुए. उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ गर्मियों के अदालती अवकाश में इस केस की जबरदस्त तैयारी की थी. सीरवाय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश विधानसभा की ओर से उपस्थिति का आशय यह नहीं समझा जाना चाहिए कि विधानसभा ने अपने विशेषाधिकार सुप्रीमकोर्ट को समर्पित कर दिए हैं.

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तमाम विधिक निर्णयों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के हवाले से उन्होंने सर्वोच्च अदालत को अवगत कराया कि विधानसभा के विशेषाधिकार असंदिग्ध हैं. उसकी कार्यवाही और उसकी अवमानना करने वाले व्यक्ति को दंडित करने के फैसले पर हाईकोर्ट को दखल का कोई अधिकार नहीं है.

न्यायपालिका की ओर से पूर्व अटॉर्नी जनरल एम.सी. सीतलवाड़ ने भी काफी प्रभावी बहस की. उनका कहना था कि संविधान सर्वोच्च है और उसने सुप्रीम और हाईकोर्ट को किसी भी अथॉरिटी के विरुद्ध रिट जारी करने का अधिकार दिया है. विधायिका भी इसमें अपवाद नहीं है. इन अदालतों को संविधान की समीक्षा भी करनी होती है और इस वृत्त में विभिन्न संस्थानों की भूमिका भी निर्णीत करनी होती है. ऐसी दशा में यह कहना कि कोर्ट विधायिका की किसी कार्यवाही के विरुद्ध याचिका पर विचार नहीं कर सकती अनुचित है. सुप्रीमकोर्ट ने दोनों पक्षों को काफी विस्तार से सुना.

भारत के सातवे मुख्य न्यायाधीश CJI न्यायमूर्ति पी.वी.गजेंद्र गडकर की अगुवाई में सात सदस्यीय संविधान पीठ ने इस मामले में निर्णय दिया कि सदन के विशेषाधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए. लेकिन यदि सदन की अवमानना के मामले में किसी याचिका की हाईकोर्ट के जज सुनवाई करते हैं तो इस आधार पर जजों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती. सुप्रीम अदालत के निर्णय के बाद भी यद्यपि विधानसभा इस मत पर अडिग रही कि उसकी कार्रवाई अदालतों के विचार का विषय नहीं हो सकती, लेकिन आगे स्थिति और खराब होने देने से उसने परहेज किया.

सोशलिस्ट पार्टी SOCIALIST PARTY के गोरखपुर के एक कार्यकर्ता केशव सिंह की वह याचिका जिस पर अंतरिम आदेश के परिणामस्वरूप तत्कालीन कांग्रेस सरकार, विधानसभा और इलाहाबाद उच्च न्यायलय आमने-सामने हुए थे, न्यायमूर्ति टकरू और न्यायमूर्ति जी.सी. माथुर की बेंच द्वारा शेष सजा भुगतने के लिए हाजिर होने के निर्देश के साथ 10 मार्च 1965 को खारिज कर दी गई.

लेखक – राज खन्ना

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