बेटे ने नाजायज होने का किया दावा, असली पिता से मांगी मेंटेनेंस, सुप्रीम कोर्ट ने दो दशक पुराने मामले में अहम फैसला सुनाया

अदालत ने बंद किया केस अदालत ने कहा कि डीएनए टेस्ट कराना किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन कर सकता है और उसकी सामाजिक और पेशेवर प्रतिष्ठा पर गहरा असर डाल सकता है। कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि ऐसी स्थिति में महिलाओं की गरिमा और निजता की भी रक्षा की जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इस मामले को अब समाप्त किया जाना चाहिए। युवक के जैविक पिता होने के दावे को खारिज कर दिया गया और उसे अपनी मां के पूर्व पति का वैध पुत्र माना गया।

मामले में 23 साल युवक ने दावा किया कि उसकी पैदाइश मां के विवाहेतर संबंध का नतीजा है।

लगभग दो दशक पुराने मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने अहम फैसला सुनाया है। मामले में एक बेटे द्वारा कोर्ट में याचिका दायर कर अपने बायोलॉजिकल पिता के डीएनए टेस्ट कराने की मांग की गई थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने करीब दो दशक पुराने मामले में अहम फैसला सुनाया। यह फैसला पितृत्व और वैधता की धारणा से निपटने से संबंधित था। दरअसल 23 वर्षीय एक शख्स ने अपने बायोलॉजिकल पिता से डीएनए टेस्ट की मांग की थी।

याचिकाकर्ता ने इस मांग में अपनी मां के विवाह से इतर संबंध का भी हवाला दिया। इस मांग को अदालत ने खारिज करते हुए कहा कि दूसरे व्यक्ति का भी निजता का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि असली माता-पिता को जानने के अधिकार और उस व्यक्ति की निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाना जरूरी है।

मामला संक्षेप में-

कोर्ट में दायर याचिकाकर्ता मुताबिक, 23 वर्षीय युवक की मां की शादी साल 1989 में हुई थी। साल 1991 में उन्हें एक बेटी हुई और साल 2001 में उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया। साल 2003 में उनकी मां अपने पति से अलग हो गई और साल 2006 में उनके माता-पिता के बीच तलाक हो गया। याचिकाकर्ता के मुताबिक, तलाक के तुरंत बाद बर्थ सर्टिफिकेट में अपने बेटे के पिता के नाम को बदलने को लेकर मां ने कोचीन नगर निगम से संपर्क किया। अधिकारियों ने इस मामले पर कहा कि वह बगैर कोर्ट के आदेश के पिता के नाम को नहीं बदल सकते तो महिला और उसके बेटे ने कानूनी लड़ाई शुरू कर दी। साल 2007 में अदालत ने बायोलॉजिकल पिता को कोर्ट ने डीएनए परीक्षण कराने का आदेश दिया। हालांकि साल 2008 में उन्होंने हाईकोर्ट में इस मामले को चुनौती दी, जहां से बायोलॉजिकल पिता को राहत मिली। इस दौरान हाईकोर्ट ने कहा कि पितृत्व का परीक्षण यानी डीएनए टेस्ट का आदेश केवल तभी दिया जा सकता है, जब पक्षकार पति-पत्नी के बीच गैर-पहुंच साबित कर सके।

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कोर्ट की प्रतिक्रिया-

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने  कहा की बायोलॉजिकल पिता के डीएनए टेस्ट से खुद के डीएनए टेस्ट कराने की बेटे की मांग को नकार दिया। अदालत ने कहा कि यह व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन है। कोर्ट ने बेटे को उसकी मां के पूर्व पति और उसके कानूनी पिता का वैध संताना माना है। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि बेटे को अपने असली माता-पिता को जानने के अधिकार और उस व्यक्ति की निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है, जिसके बारे में वह दावा करता है कि वह उसका पिता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 की धारा 112 के तहत वैध विवाह के दौरान या विवाह समाप्त होने के 280 दिन के भीतर जन्मा बच्चा पति का वैध संतान माना जाता है। पीठ ने कहा कि भले ही युवक की मां का विवाहेतर संबंध रहा हो, लेकिन यह साबित नहीं होता कि पति-पत्नी के बीच संपर्क नहीं था। कोर्ट ने कहा कि ‘समानांतर संपर्क’ यह साबित नहीं करता कि पति-पत्नी का संपर्क टूट गया था।

अदालत ने कहा कि डीएनए टेस्ट कराना किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन कर सकता है और उसकी सामाजिक और पेशेवर प्रतिष्ठा पर गहरा असर डाल सकता है। कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि ऐसी स्थिति में महिलाओं की गरिमा और निजता की भी रक्षा की जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इस मामले को अब समाप्त किया जाना चाहिए। युवक के जैविक पिता होने के दावे को खारिज कर दिया गया और उसे अपनी मां के पूर्व पति का वैध पुत्र माना गया।

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