Bilkis Bano Case: सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार का माफी आदेश किया खारिज, कहा कि छूट पर फैसला महाराष्ट्र सरकार को लेना था, गुजरात सक्षम राज्य नहीं

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Bilkis Bano Case: सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार का माफी आदेश खारिज कर दिया और कहा कि छूट पर फैसला महाराष्ट्र सरकार को लेना था, गुजरात सक्षम राज्य नहीं। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि राज्य, जहां किसी अपराधी पर मुकदमा चलाया जाता है और सजा सुनाई जाती है, वह दोषियों की माफी याचिका पर निर्णय लेने में सक्षम है। दोषियों पर महाराष्ट्र द्वारा मुकदमा चलाया गया। दरअसल, मुंबई में CBI की एक विशेष अदालत ने इस मामले में 2008 में 11 आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी इस फैसले पर अपनी मुहर लगाई थी।

Bilkis Bano के दोषियों की समयपूर्व रिहाई के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुईयां की बेंच ने बड़ा फैसला सुनाते हुए दोषियों की सजा माफी का गुजरात सरकार का आदेश रद्द कर दिया और दोषियों को वापस जेल भेजने के लिए 2 हफ्ते में सरेंडर करने के लिए कहा है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि गुजरात सरकार फैसला लेने के लिए उचित सरकार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने 2022 का फैसला भी रद्द कर दिया। इस फैसले में गुजरात सरकार को उचित सरकार बताया गया था और साथ ही कहा गया कि 1992 की नीति पर विचार करें।

दोषियों की रिहाई के लिए गुजरात सरकार सक्षम नहीं : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार का माफी आदेश खारिज कर दिया और कहा कि छूट पर फैसला महाराष्ट्र सरकार को लेना था, गुजरात सक्षम राज्य नहीं. दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया। कोर्ट ने कहा कि उसका अधिकार क्षेत्र गुजरात के पास है। SC का 2022 आदेश धोखाधड़ी से प्राप्त किया, जिस राज्य में ट्रायल चला, उसे छूट पर निर्णय लेने का अधिकार थ। गुजरात छूट पर ये फैसला लेने में सक्षम नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य में जहां अपराधी पर ट्रायल चलाया जाता है और सजा सुनाई जाती है, वह दोषियों को माफी याचिका पर फैसला करने में सक्षम है। सक्षमता की कमी के कारण गुजरात सरकार द्वारा छूट के आदेश को रद्द किया जाना चाहिए।

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2 हफ्ते में दोषियों का सरेंडर, वापस जेल जाने के आदेश-

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के दौरान कहा कि अब जब रिहाई का आदेश रद्द कर दिया दिया, तो आगे क्या होगा? क्या आदेश रद्द कर उन्हें वापस जेल भेज दिया जाना चाहिए? यह हमारे सामने एक नाजुक प्रश्न रहा है। ये पर्सनल लिबर्टी का मामला है? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई व्यक्ति केवल कानून के अनुसार ही स्वतंत्रता की सुरक्षा का हकदार है। क्या कानून का शासन किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हावी हो सकता है या इसके विपरीत? कोर्ट ने आगे कहा कि न्यायपालिका को अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से करना होगा। इस अदालत को कानून के शासन को बनाए रखने में एक प्रकाशस्तंभ होना चाहिए। अगर ऐसा है तो अन्य उच्च न्यायालय भी इसका पालन करेंगे। यदि कानून का शासन लागू करना है तो करुणा और सहानुभूति की कोई भूमिका नहीं है। अदालत को इसे बिना किसी डर या पक्षपात के लागू करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून के शासन का पालन किए बिना न्याय नहीं किया जा सकता। न्याय में सिर्फ दोषियों के ही नहीं, बल्कि पीड़ितों के भी अधिकार शामिल हैं। यदि दोषी अपनी दोषसिद्धि के परिणामों को टाल सकते हैं, तो समाज में शांति एक कल्पना बनकर रह जाएगी। दोषियों को जेल से बाहर रहने की इजाजत देना अमान्य आदेशों को मंजूरी देने जैसा होग। कोर्ट ने कहा कि दोषियों को 2 हफ्ते के अंदर सरेंडर करके वापस जेल जाना होगा।

2022 का फैसला भी कानून की दृष्टि से खराब-

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि 13 मई, 2022 का फैसला भी “प्रति इंक्यूरियम” (कानून की दृष्टि से खराब) है, क्योंकि इसने छूट के लिए उपयुक्त सरकार के संबंध में संविधान पीठ के फैसले सहित बाध्यकारी मिसालों का पालन करने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2022 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें SC ने कहा था कि गुजरात के पास छूट का फैसला करने की शक्ति है और 1992 की छूट नीति, जो हत्या, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार के लिए छूट की अनुमति देती है, लागू है।

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सजा प्रतिशोध के लिए नहीं, बल्कि सुधार के लिए है-

फैसले के दौरान जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि यूनानी दार्शनिक ने इस बात पर जोर दिया था कि सजा प्रतिशोध के लिए नहीं बल्कि सुधार के लिए दी जानी चाहिए। प्लेटो का कहना है कि सजा प्रतिशोध के लिए नहीं, बल्कि सुधार के लिए है। उपचारात्मक सिद्धांत में सज़ा की तुलना दवा से की जाती है। यदि किसी अपराधी का इलाज संभव है तो उसे मुक्त कर दिया जाना चाहिए। यह सुधारात्मक सिद्धांत का हृदय है। यदि किसी अपराधी का इलाज संभव है तो उसे शिक्षा और अन्य कलाओं द्वारा सुधारना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस की याचिका को बताया था सुनवाई योग्य

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फैसले के दौरान कहा कि सवाल ये है कि क्या समय पूर्व रिहाई दी जा सकती है? हम पूरी तरह कानूनी सवाल पर जाएंगे, लेकिन पीड़ित के अधिकार भी महत्वपूर्ण हैं। नारी सम्मान की पात्र है. क्या महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों में छूट दी जा सकती है? ये वो मुद्दे हैं, जो उठते हैं। हम योग्यता और सुनवाई योग्य होने, दोनों के आधार पर उपरोक्त दार्शनिक आधार के आलोक में रिट याचिकाओं पर विचार करने के लिए आगे बढ़ते हैं। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि गुजरात सरकार की छूट के आदेश पारित करने की क्षमता को लेकर यह स्पष्ट है कि उपयुक्त सरकार को छूट के आदेश पारित करने से पहले अदालत की अनुमति लेनी होगी। इसका मतलब है कि घटना का स्थान या दोषियों की कारावास की जगह छूट के लिए प्रासंगिक नहीं है। उपयुक्त सरकार की परिभाषा अन्यथा है। सरकार का इरादा यह है कि जिस राज्य के तहत दोषी पर ट्रायल चलाया गया और सजा सुनाई गई, वह उचित सरकार थी। इसमें ट्रायल की जगह पर जोर दिया गया है, न कि जहां अपराध हुआ।

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गुजरात सरकार द्वारा उन्हें दी गई छूट को चुनौती देने वाली बानो द्वारा दायर याचिका के अलावा, सीपीआई (एम) नेता सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लौल और लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा सहित कई अन्य जनहित याचिकाओं ने राहत को चुनौती दी है।

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