DNA Test के लिए मजबूर करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन, अदालतों को ऐसा करने से बचना चाहिए – सुप्रीम कोर्ट

DNA Test के लिए मजबूर करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन, अदालतों को ऐसा करने से बचना चाहिए – सुप्रीम कोर्ट

न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा, “जब वादी खुद को डीएनए परीक्षण के अधीन करने के लिए तैयार नहीं है, तो उसे इससे गुजरने के लिए मजबूर करना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उसके निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा।”

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा की किसी भी केस में डीएनए जांच का आदेश देने को काफी बड़ा और संवेदनशील माना जाता है. इसी बिंदु को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने डीएनए टेस्ट को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है.

कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि नियमित रूप से लोगों के DNA टेस्ट का आदेश नहीं दिया जाना चाहिए। कोर्ट की नजरों में DNA टेस्ट कराना निजता के अधिकार के खिलाफ माना जा सकता है।

न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा, “जब वादी खुद को डीएनए परीक्षण के अधीन करने के लिए तैयार नहीं है, तो उसे इससे गुजरने के लिए मजबूर करना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उसके निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा।”

ये भी कहा गया है कि DNA टेस्ट के लिए मजबूर करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा है कि सिर्फ उन मामलों में ही ऐसा करना चाहिए जहां इस तरह के टेस्ट की अत्यधिक आवश्यकता हो।

जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस हृषिकेश रॉय की बेंच ने कहा कि अदालतों के विवेक का इस्तेमाल पक्षों के हितों को संतुलित करने के बाद किया जाना चाहिए और ये तय किया जाना चाहिए कि मामले में न्याय करने के लिए DNA टेस्ट की आवश्यकता है या नहीं।

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पीठ ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में जहां रिश्ते को साबित करने या विवाद करने के लिए अन्य सबूत उपलब्ध हैं तो अदालत को आमतौर पर DNA टेस्ट का आदेश देने से बचना चाहिए।

अब जानकारी के लिए बता दें कि कोर्ट ने ये फैसला मालिकाना हक को लेकर एक मुकदमें में सुनाया है। दरअसल अपीलकर्ता ने दिवंगत दंपति द्वारा छोड़ी गई संपत्ति पर दावा किया था। हालांकि, दंपति की तीन बेटियों ने इस बात से इनकार किया कि अपीलकर्ता मृतक का बेटा था और उसने संपत्ति पर विशेष दावा किया. इसी वजह से ये मामला सबसे पहले निचली अदालत के पास गया।

निचली अदालत के समक्ष बेटियों ने उसका DNA टेस्ट कराने की अर्जी दी थी। वहीं दूसरी तरफ अपीलार्थी ने इस आवेदन का विरोध करते हुए दावा किया कि यह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। जोर देकर कहा गया उसने यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत पेश किए कि वह दिवंगत दंपति का बेटा है।

शीर्ष अदालत ने कहा की निचली अदालत ने सही तरीके से अर्जी को खारिज किया-

शीर्ष अदालत ने कहा की निचली अदालत ने सही तरीके से अर्जी को खारिज किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वादी द्वारा पहले ही अपने सबूत पेश करने के बाद आवेदन दायर किया गया था। जब प्रतिवादी के साक्ष्य की बारी आई, तो उन्होंने वादी को डीएनए परीक्षण के अधीन करने की मांग की। कोर्ट ने अर्जी की टाइमिंग को ध्यान में रखते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट ने इसे सही तरीके से खारिज कर दिया।

ट्रायल कोर्ट ने डीएनए परीक्षण का आदेश पारित करने से इनकार करने के बाद प्रतिवादियों ने हाईकोर्ट में आदेश के खिलाफ अपील कर दी। उस अपील के बाद उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए विपरीत दृष्टिकोण रखा कि अपीलकर्ता को प्रतिवादियों द्वारा सुझाए गए DNA टेस्ट से नहीं हिचकिचाना चाहिए और टेस्ट कराना चाहिए। इस वजह से पीड़ित याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. अब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ही डीएनए परीक्षण को लेकर ये फैसला सुनाया है।

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तथ्यों का अवलोकन-

तथ्यों का अवलोकन करते हुए, शीर्ष कोर्ट ने कहा कि बनारसी दास बनाम टीकू दत्ता 2005(4) SCC 449 में यह माना गया है कि डीएनए परीक्षण को नियमित रूप से नहीं बल्कि केवल योग्य मामलों में निर्देशित किया जाना चाहिए। बाद में, दीपनविता रॉय बनाम रोनोब्रोतो रॉय (2015) 1 SCC 365 में, व्याभिचार से संबंधित एक मामले में, कोर्ट ने बनारी दास में व्यक्त विचार का समर्थन किया और कहा कि एक पक्ष के खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जा सकता है जो डीएनए परीक्षण से गुजरने से इनकार करता है।

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय द्वारा लिखे गए फैसले में निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियां की गईं-

“सबूत के बोझ के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए, यह निष्कर्ष निकालना सुरक्षित होगा कि वर्तमान जैसे मामले में, न्यायालय का निर्णय पक्षों के हितों के संतुलन यानी सत्य की खोज, सामाजिक और सांस्कृतिक निहितार्थ के बाद ही दिया जाना चाहिए। एक व्यक्ति को एक कमीने के रूप में कलंकित करने की संभावना, वह अपमान जो एक वयस्क से जुड़ जाता है, जिसे अपने जीवन के परिपक्व वर्षों में अपने माता-पिता के जैविक पुत्र नहीं दिखाया जाता है, न केवल एक भारी कीमत चुका सकता है बल्कि उसके निजता के अधिकार में घुसपैठ भी हो सकती है।

अदालत को दोनों पक्षों के सबूतों को सभी परिचर परिस्थितियों से तौलना है और फिर मुकदमे में फैसला सुनाना है और यह उस तरह का मामला नहीं है जहां वादी का डीएनए परीक्षण बिना किसी अपवाद के है।”

केस टाइटल – अशोक कुमार बनाम राज गुप्ता और अन्य

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CIVIL APPEAL NO. 6153 OF 2021
(Arising out of SLP(C) No.11663 of 2019)

कोरम – न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय

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