उड़ीसा उच्च न्यायलय ने सोमवार को व्यक्ति को दी गई मृत्युदंड की सज़ा कम कर दी, जिसे 2018 में 6 वर्षीय बच्ची से बलात्कार और हत्या के लिए निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया था।
मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए न्यायमूर्ति संगम कुमार साहू और न्यायमूर्ति राधा कृष्ण पटनायक की बेंच ने कहा कि “राज्य वकील द्वारा हमारे समक्ष कोई भी ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे पता चले कि सुधार और पुनर्वास की कोई संभावना नहीं है। हर संत का अतीत होता है और हर पापी का भविष्य। यह सबसे जघन्य अपराध में भी सुधार की संभावना को दर्शाता है। मनुष्य का प्रयास पाप से घृणा करना होना चाहिए, पापी से नहीं। आजीवन कारावास में भी आजीवन कारावास है और मृत्युदंड में केवल मृत्यु है।”
तथ्यात्मक विवरण-
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 366 के तहत संदर्भ इस न्यायालय में विद्वान तृतीय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-सह-पीठासीन अधिकारी, बाल न्यायालय, कटक (इसके बाद ‘ट्रायल कोर्ट’) द्वारा विशेष जी.आर. केस संख्या 44/2018 में मोहम्मद मुस्ताक (इसके बाद ‘अपीलकर्ता’) पर दिनांक 18.09.2019/19.09.2019 के निर्णय और आदेश द्वारा लगाए गए मौत की सजा की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया गया है और तदनुसार, डीएसआरईएफ संख्या 04/2019 स्थापित किया गया है। विद्वान ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित उसी निर्णय और सजा के आदेश को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता द्वारा सीआरएलए संख्या 817/2019 दायर की गई है।
अपीलकर्ता पर भारतीय दंड संहिता (इसके बाद ‘आईपीसी’) की धारा 363/364/376एबी/302 के साथ यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (इसके बाद ‘पोक्सो अधिनियम’) की धारा 6 के तहत अपराध करने के आरोप में ट्रायल कोर्ट में मुकदमा चलाया गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि 21.04.2018 की शाम लगभग 6.30 से 7.00 बजे सालीपुर थाने के अंतर्गत जगन्नाथपुर गांव में उसने लगभग छह साल की नाबालिग पोती (इसके बाद ‘मृतक’) को उसके माता-पिता की वैध संरक्षकता से अपहरण कर लिया ताकि उसकी हत्या की जा सके और उसने मृतका के साथ जगन्नाथपुर नोडल यूपी स्कूल (इसके बाद ‘स्कूल’) के बरामदे में बलात्कार किया और उसकी हत्या भी की।
विद्वान ट्रायल कोर्ट ने दिनांक 18.09.2019/19.09.2019 के विवादित निर्णय और आदेश के तहत अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 364 के तहत आरोप से बरी कर दिया, लेकिन उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 363/376एबी/302 के साथ पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी पाया और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत अपराध के लिए मौत की सजा सुनाई, साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा 376एबी के तहत अपराध के लिए भी उसे मौत की सजा सुनाई। तथा उसे सात वर्ष की अवधि के लिए आर.आई. तथा 20,000/- रुपये (बीस हजार रुपये) का जुर्माना भरने की सजा सुनाई, तथा न भरने पर उसे एक वर्ष के लिए आर.आई. भुगतना होगा, तथापि, उक्त अधिनियम की धारा 42 के मद्देनजर, पोक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत अपराध के लिए कोई अलग से सजा नहीं दी गई। अपीलकर्ता को दी गई सजाएं साथ-साथ चलने का निर्देश दिया गया।
चूंकि डीएसआरईएफ तथा आपराधिक अपील दोनों एक ही निर्णय से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए दोनों पक्षों के विद्वान अधिवक्ताओं की सहमति से, उन पर समान रूप से सुनवाई की गई तथा इस सामान्य निर्णय द्वारा उनका निपटारा किया गया।
मामले का विवरण-
21 अप्रैल 2018 को शाम के समय नाबालिग पीड़ित लड़की अपने घर से लापता पाई गई, जिसके लिए उसके दादा ने अन्य परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों के साथ मिलकर उसे खोजने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। इसके बाद इलाके के कुछ लोगों द्वारा सूचना दिए जाने के बाद इंफॉर्मेंट को पता चला कि पीड़िता पास के स्कूल के बरामदे में नग्न अवस्था में पड़ी है। ऐसी सूचना मिलने पर वह मौके पर पहुंचा, लेकिन पाया कि पीड़िता को पहले ही पास के अस्पताल में भर्ती कराया जा चुका है। जब उसकी हालत बिगड़ने लगी तो उसे कटक के एससीबी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में रेफर कर दिया गया। हालांकि कुछ दिनों तक कोमा में रहने के बाद उसकी मौत हो गई। इंफॉर्मेंट ने एफआईआर दर्ज कराई और जांच की गई। गहन जांच के बाद यह बात सामने आई कि पीड़िता को घायल अवस्था में पाए जाने से पहले वह अपीलकर्ता के साथ गवाह (पी.डब्लू.7) की दुकान पर आई थी। गवाह ने बयान दिया कि अपीलकर्ता ने पीड़िता के लिए कुछ चॉकलेट खरीदी और उसे स्कूल की ओर ले गया। यह भी पता चला कि पीड़िता के भाई (पी.डब्लू.13) और अन्य गवाह (पी.डब्लू.5) ने भी घटना से पहले अपीलकर्ता को उसके पास घूमते देखा था।
मामले में कोर्ट का निर्णय-
अपीलकर्ता के वकील द्वारा पी.डब्लू.5 के साक्ष्य पर इस आधार पर आपत्ति की गई कि अपराध से ठीक पहले मृतक के पास अपीलकर्ता को देखने के बावजूद, उसने इंफॉर्मेंट को तथ्य का खुलासा नहीं किया, इसलिए उसके साक्ष्य को खारिज कर दिया जाना चाहिए।
हालांकि न्यायालय ने इस तरह के तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया-
“अपीलकर्ता सह-ग्रामीण व्यक्ति है और वह पारिवारिक व्यक्ति है, जिसके पत्नी और बच्चे है और रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है कि अपीलकर्ता का अतीत में कोई आपराधिक इतिहास है या वह लापरवाह व्यक्ति है। इसलिए मृतक के लापता होने के संबंध में अपीलकर्ता के खिलाफ कोई संदेह न उठाना पी.डब्लू.5 की ओर से बहुत स्वाभाविक है।”
न्यायालय ने पीड़ित के नाबालिग भाई के साक्ष्य की भी जांच की जिसने घटना का विस्तृत विवरण दिया। उसके बयान को देखने के बाद पीठ की राय थी कि बाल गवाह का साक्ष्य विश्वसनीय है और उस पर भरोसा किया जा सकता है।
अपीलकर्ता के वकील ने यह भी तर्क दिया कि एफआईआर में संदिग्ध के रूप में अपीलकर्ता का नाम न बताना अभियोजन पक्ष के मामले के लिए घातक है, लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा,
“अपराध में अपीलकर्ता की भूमिका का पता लगाने के लिए पी.डब्लू.4 के पास बहुत कम समय था। इसलिए संदिग्ध के रूप में अपीलकर्ता का नाम न बताना पी.डब्लू.7 और पी.डब्लू.18 के साक्ष्य को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता।”
अपीलकर्ता की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि एफआईआर की कॉपी और गवाहों के बयानों को न्यायालय में भेजने में अनुचित देरी हुई, जो पुलिस थाने के पास स्थित है। हालांकि न्यायालय ने इस तरह के तर्क को स्वीकार नहीं किया।
कोर्ट ने आगे कहा-
“अभियुक्त को फॉरवर्ड करते समय पहले से दर्ज किए गए गवाहों के बयानों को न्यायालय में भेजने में देरी से उनके साक्ष्य अस्वीकार्य नहीं हो जाते, जब तक कि न्यायालय के संज्ञान में कोई स्पष्ट तथ्य न लाया जाए या अन्यथा साबित न हो जाए कि ऐसे बयान अस्तित्व में नहीं थे और बाद में बनाए गए और पूर्व दिनांकित थे।”
यह भी देखा गया कि अपीलकर्ता को न्यायालय में फारवर्ड करते समय दर्ज किए गए सभी बयानों को न भेजना मृतक के साथ अपीलकर्ता के अंतिम बार देखे जाने को साबित करने के लिए जांचे गए गवाहों के साक्ष्य पर अविश्वास करने का आधार नहीं हो सकता। भले ही यह जांच अधिकारी की ओर से चूक थी, जो जांच में व्यस्त प्रतीत होता है।
पी.डब्लू.7 (दुकानदार) की गवाही को इस आधार पर चुनौती दी गई कि वह पुलिस विभाग की ‘स्टॉक-विटनेस’ थी, जो आमतौर पर पुलिस की ओर से कई मामलों में पेश होती है।
मामले में ये भी सज्ञान लिया गया-
“स्टॉक विटनेस वह व्यक्ति होता है, जो पुलिस के पीछे और कॉल पर रहता है और पुलिस के निर्देशानुसार सामने आता है, जब पी.डब्लू.7 का साक्ष्य पुख्ता भरोसेमंद और विश्वसनीय है। क्रॉस एग्जामिनेशन में इसे खंडित नहीं किया गया तो इसे बिना किसी विशिष्ट सामग्री के स्टॉक गवाह के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।”
अदालत ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि अपीलकर्ता घटना के तुरंत बाद गांव से फरार हो गया, जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के प्रावधान के तहत प्रासंगिक आचरण है।
डिवीजन बेंच ने यह भी पाया कि अपीलकर्ता द्वारा पीड़ित को पहुंचाई गई चोटें प्रकृति के सामान्य क्रम में घातक थीं और यह साबित हुआ कि सिर पर कुंद आघात की चोट और हाइपोक्सिक मस्तिष्क की चोट के प्रभावों के साथ कोमा के कारण मृत्यु हुई। इस प्रकार अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराध साबित हुआ।
अदालत का मानना था कि इंडियन पीनल कोड (IPC) की धारा 376-AB या POCSO Act की धारा 6 के तहत अपीलकर्ता को दोषी ठहराने के लिए रिकॉर्ड पर कोई पुख्ता सबूत नहीं है। इसके बजाय यह माना गया कि अपीलकर्ता के खिलाफ इंडियन पीनल कोड (IPC) की धारा 354 के तहत अपराध स्पष्ट रूप से बनता है।
जहां तक मृत्युदंड लगाने के सवाल का सवाल है, न्यायालय ने माना कि ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे पता चले कि सुधार की संभावना समाप्त हो गई।
“मामले कि सुनवाई के दौरान कोर्ट ने राज्य वकील से विशेष रूप से पूछा कि क्या अपीलकर्ता के खिलाफ कोई आपराधिक पृष्ठभूमि है क्या जेल हिरासत में रहने के दौरान अपीलकर्ता के आचरण के खिलाफ कोई प्रतिकूल बात है, जिसका उन्होंने नकारात्मक उत्तर दिया। यह विवादित नहीं है कि अपीलकर्ता विवाहित व्यक्ति है और उसके बच्चे हैं।”
अस्तु कोर्ट द्वारा अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया। लेकिन उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। हालांकि, शर्त लगाई गई कि उसे कम से कम बीस (20) साल की सजा काटनी होगी, जिसके पहले वह छूट के लिए विचार करने योग्य नहीं होगा।
उन्हें इंडियन पीनल कोड (IPC) धारा 354 के तहत अपराध के लिए पांच (5) साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई और उसकी दोषसिद्धि और सजा, यानी धारा 363 के तहत अपराध करने के लिए सात (7) साल के कठोर कारावास बरकरार रखा गया।
ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना 2017 के अंतरगर्त पीड़िता के माता-पिता को मुआवजा देने के लिए जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, कटक को आदेश जारी किया गया। अगर ट्रायल कोर्ट के आदेश के अनुसार उन्हें पहले से ही मुआवजा नहीं दिया गया।
न्यायालय मामले से अलग होने से पहले, अपीलकर्ता के विद्वान वकील श्री रमणिकान्त पटनायक और श्री विकास चन्द्र परीजा को मामले की तैयारी और प्रस्तुति तथा उपर्युक्त निर्णय पर पहुँचने में न्यायालय की सहायता करने के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहते हैं। यह न्यायालय श्री जनमेजय कटिकिया, विद्वान अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता द्वारा प्रदान की गई अत्यंत मूल्यवान सहायता की भी सराहना करता है।
तदनुसार, मृत्यु दण्ड संदर्भ का उत्तर नकारात्मक है। आपराधिक अपील आंशिक रूप से स्वीकृत है।
वाद शीर्षक – ओडिशा राज्य बनाम मोहम्मद मुस्तक