ट्रायल कोर्ट को कारावास की कई सजाएं देते समय स्पष्ट शब्दों में यह बताना होगा कि सजाएं साथ-साथ चलेंगी या एक के बाद एक – सुप्रीम कोर्ट

ट्रायल कोर्ट को कारावास की कई सजाएं देते समय स्पष्ट शब्दों में यह बताना होगा कि सजाएं साथ-साथ चलेंगी या एक के बाद एक – सुप्रीम कोर्ट

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एक महत्वपूर्ण अवलोकन में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ट्रायल कोर्ट को कारावास के कई दंड देते समय स्पष्ट शब्दों में यह निर्दिष्ट करना होगा कि दंड समवर्ती होंगे या क्रमानुगत। जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा कि उक्‍त दायित्व को पूरा करने में कोई भी चूक पक्षों के खिलाफ अनावश्यक और परिहार्य पूर्वाग्रह का कारण बनती है।

अदालत ने दोहराया कि यह बताने में चूक कि आरोपी को दी गई सजा समवर्ती होगी या क्रमानुगत, अनिवार्य रूप से आरोपी के खिलाफ कार्य करेगी। पीठ ने कहा कि सजा समवर्ती होगी, आदेश में यह बताने में चूक का नतीजा यह होता है कि सजाएं क्रमानुगत रूप से चलती हैं।

मौजूदा मामले में, अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता की धारा 363, 366 और 376 (1) के तहत अपराधों का दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को कई दंड दिए, जबकि यह निर्दिष्ट नहीं किया कि सभी दंडों में कारावास समवर्ती ‌होंगे या क्रमानुगत।

हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले में संशोधन किया, लेकिन उसने भी इस पहलू को स्पष्ट नहीं किया। जेल अधीक्षक, जिला जेल, मेरठ ने कारावास का प्रमाण पत्र जारी करते हुए कहा कि अभियुक्तों 10 साल और 1 महीने के कारावास को भुगत चुके हैं, हालांकि आदेश में दंड के समवर्ती या क्रमानुगत होने का कोई उल्लेख नहीं होने पर, वह 22 साल का कारवास भुगत रहे हैं।

आरोपी की ओर से पेश वकील अमित पई ने नागराज राव बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (2015) 4 एससीसी 302 और गगन कुमार बनाम पंजाब राज्य (2019) 5 एससीसी 154 पर भरोसा किया। उन्होंने दलील दी कि कोर्ट के लिए यह अनिवार्य है कि वह यह निर्दिष्ट करे कि सजा समवर्ती होगी या क्रमानुगत। साथ ही उन्होंने कहा कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट की ओर से अपेक्षित विशिष्टताओं को बताने में हुई चूक को आरोपी-अपीलकर्ताओं के हितों के खिलाफ कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

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यह भी दलील दी गई थी कि धारा 31 CrPC के अनुसार, जब तक कि यह निर्दिष्ट नहीं किया जाता कि सजा समवर्ती है, सजा क्रमानुगत होती है, हालांकि इसके लिए न्यायालय को उस आदेश में उक्त तथ्या को निर्देशित करने की आवश्यकता होती है, जिसमें वे सजाएं दी गई होती हैं; और ट्रायल कोर्ट या हाईकोर्ट द्वारा ऐसा कोई निर्देश नहीं दिए जाने के बाद यह नहीं कहा जा सकता है कि न्यायालय ने जानबूझकर क्रमानुगत सजा का प्रावधान किया थे।

उन्होंने ओएम चेरियन उर्फ ​​थंकाचन बनाम केरल राज्य (2015) 2 एससीसी 501 का उल्लेख किया, और दलील दी कि कई सजाओं का क्रमानुगत चला सामान्य नियम नहीं है।

पीठ ने मामले में निम्लिखित टिप्पणियां की-

10.2 इस प्रकार, यह संदेह की छाया से परे है कि धारा 31 (1) CrPC कोर्ट को पूर्ण विवेकाधिकार प्रदान करता है कि वह एक मुकदमे में दो या दो से अधिक अपराधों के लिए सजा का आदेश देता है, जो अपराधों की प्रकृति और आसपास के कारकों को ध्यान में रखकर समवर्ती हो।

भले ही यह नहीं कहा जा सकता कि समवर्ती होना सामान्य नियम है, लेकिन यह भी निर्धारित नहीं है कि कई सजाओं को क्रमानुगत होना चाहिए।

न्यायालय द्वारा इस प्रकार के विवेक का प्रयोग करने में कोई सीधा रवैया नहीं हो सकता है; हालांकि इस विवेक का प्रयोग किए गए अपराध/अपराधों की प्रकृति और मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के संदर्भ में विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए। हालांकि, यदि सजा (आजीवन कारावास के अलावा) को समवर्ती नहीं किया जाता है, तो एक के बाद एक ऐसे क्रम में चलेगा, जैसा कि न्यायालय निर्देशित कर सकता है।

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11. इस न्यायालय की व्याख्याओं के साथ पठित, धारा 31(1) CrPC के प्रावधानों के अनुसार प्रथम दृष्टया न्यायालय स्पष्ट शब्दों में यह निर्दिष्ट करने के लिए कि सजा समवर्ती है या क्रमानुगत, कानूनी दायित्व के अधीन है।

12. जैसा कि देखा गया है, यदि प्राथमिक न्यायालय दंडों का समवर्ती होना निर्दिष्ट नहीं करता है, तो मुख्य निष्कर्ष है कि न्यायालय ने ऐसे दंडों को क्रमानुगत रखने का का इरादा किया है, हालांकि, जैसा कि पूर्वोक्त है, प्राथमिक न्यायालय को मामले को बाद के चरण के लिए नहीं छोड़ना चाहिए।

इसके अलावा, यदि प्राथमिक न्यायालय लगातार 10 दंडों को क्रमागत रूप से जारी रखने का इरादा रखता है, तो उस पर एक और दायित्व है कि वह उस आदेश (यानी अनुक्रम) को बताए, जिसमें उन्हें निष्पादित किया जाना है।

इस मामले का परेशानी भरा हिस्सा यह है कि न केवल ट्रायल कोर्ट आवश्यक विशिष्टताओं को बताने से चूका है, बल्कि हाईकोर्ट ने भी ट्रायल कोर्ट के आदेश की ऐसी खामियों को अनदेखा किया है।

13. जब हम निचली अदालत और हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेशों में उपरोक्त कमियां पाते हैं, तब भी सवाल यह है कि क्या अपीलकर्ताओं को दी गई सजा को क्रमानुगत माना जा सकता है?

जैसा कि देखा गया है, यह बताने में चूक कि क्या अभियुक्त को दी गई सजा समवर्ती होगी या क्रमानुगत, अनिवार्य रूप से अभियुक्त के खिलाफ कार्य करती है, क्योंकि जब तक न्यायालय द्वारा ऐसा नहीं कहा जाता है, धारा 31(1) CrPC की सरल भाषा के अनुसार, कई सजााएं क्रमानुगत होती हैं, यह मुथुरामलिंगम और ओएम चेरियन (सुप्रा) की में व्याख्याओं के साथ पढ़ा गया है। क्रमानुगत को बताने में चूक सजा के समवर्ती होने का नहीं बन सकती है।

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हालांकि, इस मामले के अजीबोगरीब तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया, और अपीलकर्ताओं को दी गई सजा को इस प्रकार संशोधित किया कि, उन्हें दिए गए कारावास की अधिकतम अवधि, विचाराधीन अपराधों के संबंध में 14 वर्ष हो और इससे अधिक ना हो।

आंशिक रूप से अपील की अनुमति देते हुए पीठ ने कहा,

21. मामले को समाप्त करते हुए, हम नागराज राव (सुप्रा) के मामले में जो प्रतिपादित किया गया था, उसे दोहराना उचित समझते हैं, कि प्राथमिक न्यायालय के लिए कानूनी रूप से अनिवार्य है कि कारावास के कई दंड देते समय, यह स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करे कि इस सजाएं साथ-साथ चलेंगी या एक के बाद एक। इस बात पर जोर देने की आवश्यकता नहीं है कि प्राथमिक न्यायालय द्वारा इस दायित्व को पूरा करने में हुई कोई चूक पक्षकारों के लिए अनावश्यक और परिहार्य पूर्वाग्रह का कारण बनती है…।

केस: सुनील कुमार उर्फ ​​सुधीर कुमार बनाम. उत्तर प्रदेश राज्य एलएल 2021 एससी 267

कोरम: जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस अनिरुद्ध बोस सिटेशन: एलएल 2021 एससी 267

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